पर्यावरण बचाने आगे आएं विकसित देश, फासिल फ्यूल पर कम हो निर्भरता

फासिल फ्यूल पर कम हो निर्भरता

Update: 2021-10-31 05:06 GMT

संजय गुप्त: पिछले चार-पांच दशकों से पर्यावरण विज्ञानी इसके लिए आगाह करते चले आ रहे हैं कि जीवाश्म ईंधन यानी फासिल फ्यूल के बढ़ते उपयोग से धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और इसके गंभीर परिणाम जलवायु परिवर्तन के रूप में भुगतने पड़ेंगे। इस तमाम चेतावनी के बाद भी विश्व के प्रमुख देश फासिल फ्यूल का इस्तेमाल कम करने के तौर-तरीकों पर एकमत नहीं हो रहे हैं। जिन विकसित देशों ने बीते लगभग सौ वर्षो में अपने विकास को गति देने के लिए फासिल फ्यूल का जमकर उपयोग किया, वे अब भी ऐसा करना चाहते हैं।


फासिल फ्यूल के इस्तेमाल से उनका कार्बन उत्सर्जन विकासशील और गरीब देशों की तुलना में बहुत अधिक है। जलवायु परिवर्तन पर लगाम लगाने के उद्देश्य से इस बार ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में जो कोप-26 सम्मेलन होने जा रहा है, वहां विश्व के देश इस पर चर्चा करेंगे कि कैसे फासिल फ्यूल के उपयोग को कम किया जाए और नई तकनीकों को अपनाकर पर्यावरण को बचाया जाए। ऊर्जा उत्पादन के स्नेतों में एक बड़ा स्नेत कोयला जनित बिजली संयंत्र हैं। इन संयंत्रों और पेट्रोलियम पदार्थो के उपयोग से जो कार्बन उत्सर्जन होता है, उसका पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ता है। कार्बन सोखने की क्षमता जंगलों में होती है, लेकिन वे लगातार कम होते जा रहे हैं। और उधर ऊर्जा के जो बाकी स्नेत हैं उनकी अपनी सीमाएं हैं। हाइड्रो ऊर्जा जिन बांधों के जरिये पैदा होती है, वे भी पर्यावरण पर अलग तरीके से असर डालते हैं। परमाणु ऊर्जा को विश्व के तमाम देश अब असुरक्षित मानने लगे हैं, खास तौर पर रूस के चेर्नोबिल और जापान के फुकुशिमा परमाणु संयंत्रों में हादसे के बाद से।

ग्लासगो सम्मेलन के पहले पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने साफ किया है कि पर्यावरण को जिन्होंने अधिक नुकसान पहुंचाया है, उनकी ज्यादा जवाबदेही बनती है। उन्होंने पेरिस समझौते के तहत विकासशील देशों को सौ अरब डालर की जो सहायता राशि देने की बात तय हुई थी, उसमें बढ़ोतरी की भी मांग की है। उन्होंने यह भी याद दिलाया है कि अभी तक आस्ट्रेलिया और अमेरिका ने कोयले से चलने वाले अपने थर्मल पावर प्लांट बंद नहीं किए हैं। स्पष्ट है कि भारत जहां अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को तैयार है, वहीं यह भी चाहता है कि विकसित देश भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाएं। भारत पिछले कोप सम्मेलनों में भी यह बात कहता आ रहा है। महत्वपूर्ण यह है कि विकसित देशों की ओर से अपना वादा पूरा न करने के बाद भी भारत ने अपनी जिम्मेदारी को समझा है और पिछले एक दशक में सौर और पवन ऊर्जा में खासा निवेश किया है। हालांकि सौर और पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी ऊर्जा की बढ़ती खपत को देखते हुए बहुत कम है, लेकिन भारत इस दिशा में अग्रसर है कि सौर और पवन ऊर्जा का उत्पादन और अधिक हो। भारतीय प्रधानमंत्री क्लीन एनर्जी में निवेश के लिए भारत को न केवल सबसे बेहतर विकल्प बता रहे हैं, बल्कि दुनिया भर के निवेशकों को आमंत्रित भी कर रहे हैं।

आज भारत प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत के मामले में विकसित देशों से बहुत पीछे है। भारत लगातार उन्नति कर रहा है। माना जाता है कि अगले 25-30 वर्षो तक आठ से 10 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि होती रहेगी। इस दौरान ऊर्जा खपत में तीन-चार गुना वृद्धि होगी। विकसित देश और खास तौर से यूरोपीय देश एवं अमेरिका यह कह रहे हैं कि अगर भारत ने अपनी ऊर्जा की जरूरतें फासिल फ्यूल के जरिये हासिल करने की कोशिश की तो इसका पर्यावरण पर बुरा असर पड़ेगा। ऐसा कहते हुए वे इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि भारत अपने बलबूते वैकल्पिक ऊर्जा स्नेतों को समृद्ध करने में जुटा है। भारत ने फासिल फ्यूल पर निर्भरता घटने के मामले में स्वयं के लिए एक चुनौतीपूर्ण लक्ष्य तय किया है। ऐसे ही लक्ष्य विकसित देशों को भी अपने लिए तय करने चाहिए, लेकिन वे हीलाहवाली कर रहे हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप किस तरह पेरिस समझौते से बाहर आ गए थे। चूंकि जो बाइडन ने उनके फैसले को पलट दिया है इसलिए उम्मीद है कि जी-20 सम्मेलन के साथ कोप-26 सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन को रोकने के उपायों पर ठोस चर्चा होगी।

यह ठीक नहीं कि क्लीन एनर्जी की जो तकनीक विकसित देशों के पास है, उसे वे भारत को देने में आनाकानी कर रहे हैं या फिर उनकी कंपनियां मुंहमांगी कीमत मांग रही हैं। यदि इसके बाद भी विकसित देश यह चाहते हैं कि भारत फासिल फ्यूल पर अपनी निर्भरता घटाए तो इसका मतलब है कि वे अपनी जिम्मेदारी का परिचय देने को तैयार नहीं। जब पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी विकसित देशों पर कहीं अधिक है, तब फिर इन देशों को विकासशील और गरीब देशों को ग्रीन और क्लीन एनर्जी की तकनीक सस्ती दरों पर देनी होगी। यह निराशाजनक है कि अभी ऐसा होता नहीं दिख रहा है। भारत की निजी क्षेत्र की ऊर्जा कंपनियों, जिनमें रिलायंस और अडानी प्रमुख हैं, ने इस चुनौती को समझा है और वे ग्रीन एनर्जी में निवेश करने के लिए आगे आई हैं। भारत की ऊर्जा कंपनियों और खासकर उनके विज्ञानियों में यह सामथ्र्य है कि वे देश के ही अंदर ग्रीन एनर्जी से जुड़ी तमाम तकनीक विकसित कर सकते हैं। उन्हें इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
पर्यावरण के मसले पर पिछले दो दशकों में विश्व के एकमत न हो पाने के पीछे विकसित देशों की हठधर्मिता अधिक है। वे पर्यावरण बचाने की गंभीर चुनौती का सामना करने की जिम्मेदारी विकासशील देशों खास तौर से भारत और चीन पर अधिक डालना चाहते हैं। इस रवैये से पर्यावरण को बचाना और मुश्किल होगा। पर्यावरण के लगातार गर्म होने से कहीं भयंकर तूफान आ रहे हैं तो कहीं शीत लहर और कहीं लू चल रही है। इसी के साथ बर्फ और ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं। इससे समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। अगर विकसित देश अपनी हठधर्मिता नहीं छोड़ते तो सबसे अधिक नुकसान उन्हें ही भुगतना पड़ेगा, क्योंकि उनके तमाम शहर समुद्र तटों पर बसे हुए हैं। फिलहाल यह कहना कठिन है कि ग्लासगो में भी विकसित देश अपना नजरिया बदलेंगे या नहीं, लेकिन भारत को अपने रुख पर अडिग रहना चाहिए।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]
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