लद्दाख और कारगिल के झटकों के बाद भी बीजेपी की 'देश रक्षक' छवि बरकरार है

लद्दाख और कारगिल के झटकों के बाद

Update: 2022-03-04 06:55 GMT
राकेश दीक्षित।
बीजेपी (BJP) दावा करती है कि वह राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को गंभीरता से नहीं लेती है, लेकिन वह मोदी सरकार (Modi Governmet) पर उनके कटाक्षों और आरोपों को नजरअंदाज भी नहीं करती. राहुल गांधी के ऐसे आरोपों और सवालों का केंद्रीय मंत्री जवाब देते हैं. यह कांग्रेस नेता की सफलता का पैमाना है कि 3 फरवरी को लोकसभा में अपने जोरदार भाषण में उन्होंने मोदी सरकार की विदेश नीति को घेरा था. राहुल गांधी का आरोप था कि मोदी सरकार की विदेश नीति की वजह से पाकिस्तान और चीन एक साथ आ गए. केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अब भी इस सवाल से जूझ रही है.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की बेचैनी उस वक्त जाहिर हुई, जब उन्होंने उत्तर प्रदेश के रसड़ा विधानसभा क्षेत्र में चुनावी सभा के दौरान कहा कि बीजेपी ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो इस देश की रक्षा कर सकती है और इसे सुरक्षित रख सकती है. उनका दावा राहुल गांधी के एक महीने पुराने भाषण के संदर्भ में था. मजे की बात यह है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी नहीं है. इसके बावजूद रक्षा मंत्री ने चुनावी मैदान में राहुल के भाषण का जिक्र करना उचित समझा. राजनाथ सिंह ने बीजेपी के रुख को स्पष्ट करते हुए बार-बार कहा, 'भारत की सुरक्षा को खतरे में डालने के लिए पाकिस्तान और चीन दो बार एक साथ आए और दोनों मौकों पर कांग्रेस सत्ता में थी.' रक्षा मंत्री ने चुनावी रैली के दौरान जो कुछ भी कहा, वह बात विदेश मंत्रालय के उनके समकक्ष एस जयशंकर ने संसद में राहुल गांधी द्वारा मोदी सरकार की विदेश नीति की आलोचना के तुरंत बाद ही कह दी थी.
पुरानी गलतियों के लिए कांग्रेस को ठहराया दोषी
विदेश मंत्री ने आरोपों का खंडन करते हुए ट्विटर पर चीन और पाकिस्तान के एक साथ काम करने के चार ऐसे उदाहरण पेश किए, जब बीजेपी सत्ता में नहीं थी. मंत्री ने कहा था, 'भारत का रणनीतिक लक्ष्य चीन और पाकिस्तान को अलग रखने के लिए होना चाहिए था, लेकिन आपने (कांग्रेस) ने जो किया है, उससे वे एक साथ आ गए. हम जिस चीज का सामना कर रहे हैं, उसे कम मत आंकिए. यह भारत के लिए बेहद गंभीर खतरा है.' इसके बाद उन्होंने चीन और पाकिस्तान के एक साथ काम करने के ऐसे उदाहरणों का जिक्र किया, जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी.
क्या और किस हद तक कांग्रेस की पिछली सरकारें उन घटनाक्रमों के लिए जिम्मेदार थीं, यह बहस का विषय है. लेकिन विदेश मंत्री ने हमें जो याद दिलाया, वे ऐतिहासिक तथ्य हैं. यह नहीं कहा जा सकता है कि 1963 में पाकिस्तान ने शक्सगाम घाटी को अवैध रूप से चीन के हवाले कर दिया था. न ही इस बात पर प्रकाश डाला जा सकता है कि चीन ने 1970 के दशक में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) के माध्यम से काराकोरम राजमार्ग का निर्माण किया था. हकीकत में 1970 के दशक से दोनों देशों के बीच घनिष्ठ परमाणु सहयोग भी था. और यह भी तथ्य सही है कि चीन-पाकिस्तान के बीच आर्थिक गलियारे का निर्माण 2013 में शुरू हुआ, जिसे नकारा नहीं जा सकता है. लेकिन तब खतरा इतना गंभीर नहीं था. इन तथ्यों के सच होने के बावजूद, भारत-चीन और भारत-पाक सीमाओं पर अतीत की घटनाओं को दो पड़ोसी देशों के साथ भारत की अपेक्षाकृत निम्न स्तर की दुश्मनी की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए.
इसके अलावा हम यह कैसे भूल सकते हैं कि भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ तीन युद्ध जीते. 1971 में दुश्मन देश के दो टुकड़े कर दिए. 1961 के युद्ध के बाद चीन के साथ इतनी चतुराई से रिश्ते कायम किए कि दोनों तरफ से 40 साल तक एक भी गोली चलाए बिना आमना-सामना जारी रहा? अतीत की कथित विफलताओं के लिए कांग्रेस की निंदा करना और सीमाओं पर बढ़ते तनाव के लिए उन्हें दोष देने का आज कोई मतलब नहीं है.
गलवान घाटी की झड़पें
सच यह है कि अतीत में जो कुछ भी हुआ हो, आज की तारीख में भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पहले के मुकाबले कहीं अधिक गंभीर खतरे से जूझ रही है. दो साल पहले गलवान घाटी में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) और भारतीय सेना के जवानों के बीच हिंसक झड़प सबसे खतरनाक मोड़ था, जिसने दोनों देशों के बीच काफी समय से चली आ रही संबंधों को सुधारने की कोशिश को खत्म कर दिया.
तब से राष्ट्रीय सुरक्षा को भंग करने के बीजेपी के बड़े-बड़े दावे सवालों के घेरे में आ गए हैं. गलवान झड़प के तुरंत बाद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को 'सुरेंद्र मोदी' करार दिया. कांग्रेस नेता चीन का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके 56 इंच के सीने को लेकर लगातार सवाल उठाने लगे. और मोदी सरकार को अपनी विशिष्ट चुप्पी के बारे में अब भी संतोषजनक स्पष्टीकरण देना बाकी है.
यूक्रेन पर भारत की दुविधा
वास्तव में यूक्रेन संकट पर भारत की कूटनीतिक दुविधा है. आंशिक रूप से इसके लिए मोदी सरकार की रणनीतिक मजबूरी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसके तहत वह आक्रामक रूस का विरोध नहीं करना चाहते हैं. भारत को डर है कि ऐसा करने से भारत-रूस की दोस्ती खतरे में पड़ सकती है और व्लादिमीर पुतिन और चीन के तानाशाह शी जिनपिंग एक-दूसरे के ज्यादा करीब आ सकते हैं.
ताजा संघर्ष के दौरान चीन ने रूस को उल्लेखनीय तरजीह दी और भारत चार देशों के क्वॉड का प्रमुख सदस्य होने और चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षा को जानने के बाद भी खुलेआम पश्चिम का साथ देने में असमर्थ है. चीन को डराने-धमकाने के लिए मोदी सरकार चाहे जितनी 'लाल आंखें' दिखाएं, लेकिन प्रधानमंत्री ने न तो दुश्मन देश का नाम लिया और न ही उसके राष्ट्रपति का. एक तरफ शक्तिशाली चीन के खिलाफ भारत का अस्पष्ट कमजोर उद्देश्य और दूसरी तरफ बेहद कमजोर पाकिस्तान के खिलाफ खुलेआम कट्टरवाद ने राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा के लिए मोदी सरकार की दृढ़ प्रतिबद्धता पर संदेह पैदा कर दिया है.
राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर बीजेपी का स्वामित्व
हालांकि, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर बीजेपी ने इतना ज्यादा अधिकार जता दिया है कि निकट भविष्य में चीन से निपटने के दौरान मोदी सरकार की गलतियों के लिए उसे किसी भी राजनीतिक नतीजे से जूझना नहीं पड़ेगा. कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर बीजेपी के स्वामित्व का युग 1998 के पोखरण-द्वितीय परमाणु परीक्षणों और 1999 के कारगिल युद्ध से शुरू हुआ था. इसका चरमोत्कर्ष बालाकोट के बाद का वक्त था, जब राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे ने 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को शानदार जीत दिलाई.
अब तक आम जनता की राय में चीन को संभालने के मामले को मोदी के लिए एक बड़े झटके के रूप में देखा जाता है, न कि एक आपदा के रूप में, जिसका मौलिक पुनर्आकलन हो सकता है. बीजेपी के कुशल मीडिया प्रबंधन के कारण देश की जनता राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में मोदी और उनकी पार्टी पर ज्यादा भरोसा कर सकती है. लोकसम्मत कल्पनाओं में तीन सबसे अहम खतरों पाकिस्तान, इस्लामिक कट्टरवाद और माओवाद के मामले में बीजेपी को अब भी सबसे तगड़ी पार्टी के रूप में देखा जाता है.
पाकिस्तान और आतंकवाद पर अपनी बयानबाजी की वजह से बीजेपी राष्ट्रीय सुरक्षा की सबसे बड़ी खिलाड़ी बन गई है. चीन की धमकियों के प्रति कमजोर प्रतिक्रिया के बावजूद इसकी विदेश नीति हिंदुत्व की घरेलू राजनीति और मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह से पूरी तरह मेल खाती है.
रक्षक के रूप में इंदिरा गांधी
राष्ट्रीय सुरक्षा का कथित स्वामित्व बीजेपी से छीनने के लिए कांग्रेस को काफी मेहनत करनी होगी. जब इंदिरा गांधी थीं, तब पार्टी को वह फायदा स्पष्ट रूप से मिला था. उन्होंने 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ भारत को बड़ी जीत दिलाई थी और खालिस्तान आंदोलन के खिलाफ अभियान में अपने कार्यकाल का सबसे ज्यादा वक्त दिया था. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वे नेहरू-गांधी परिवार की एकमात्र सदस्य हैं, जिन्हें सुरक्षा के मुद्दे पर घेरने से बीजेपी बचती है.
1998 में परमाणु परीक्षणों के बाद कांग्रेस ने देश के सबसे भरोसेमंद रक्षक के रूप में अपना दर्जा गंवा दिया था. पोखरण-दो परीक्षण अविश्वसनीय रूप से लोकप्रिय हुआ था और संघ परिवार ने पूरे देश में जश्न मनाया था. वहीं, कारगिल युद्ध में भारत की जीत के एक साल पूरा होने पर बहुसंख्यक समुदाय ने काफी उत्साह से जश्न मनाया था. अनुच्छेद 370 खत्म करके और सर्जिकल स्ट्राइक का प्रचार सार्वजनिक रूप से करके बीजेपी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति अपनी विश्वसनीयता को और बढ़ा दिया. राजनीति में सबकुछ धारणा पर निर्भर करता है. राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में अपनी क्षमता को लेकर बीजेपी दशकों से काम कर रही है और उसने अपनी जड़ें काफी गहरी कर ली हैं, जिसे जल्दी गंवाना मुमकिन नहीं है.
चुनावी मुद्दे के रूप में सुरक्षा
अच्छाई या बुराई के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा चुनावी प्रचार करने और नंबर बनाने का अभिन्न अंग बन गई है. चुनाव के वक्त राजनीतिक चर्चा के दौरान बीजेपी इसमें अहम योगदान देती है. अगर अतीत का रुख करें तो 1971 के युद्ध में जीत के बाद खुशी मनाने के अलावा चुनावी अभियानों में राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बेहद मामूली रूप से नजर आया है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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