लोकतंत्र और राजद्रोह

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि बात-बात पर राजद्रोह की संगीन धाराओं में मुकदमा करने की प्रवृत्ति गलत है

Update: 2021-06-05 03:53 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि बात-बात पर राजद्रोह की संगीन धाराओं में मुकदमा करने की प्रवृत्ति गलत है और इस पर रोक लगनी चाहिए। पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश पुलिस द्वारा दर्ज किए गए राजद्रोह के मामले में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हरेक पत्रकार इस मामले में संरक्षण का हकदार है। कोर्ट ने इस मामले में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार केस में 1962 में दिए अपने फैसले का भी हवाला दिया। उस फैसले में ही सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि राजद्रोह की धाराएं सिर्फ उन्हीं मामलों में लगाई जानी चाहिए, जिनमें हिंसा भड़काने या सार्वजनिक शांति को भंग करने की मंशा हो। इससे यह बात रेखांकित होती है कि शीर्ष अदालत ने आजाद भारत में इस कानून के इस्तेमाल पर कोई रोक भले न लगाई हो, छह दशक पहले ही इसके प्रयोग की सीमाएं पूरी सख्ती से निर्धारित कर दी थीं।

बावजूद इसके, बाद की सरकारों ने इस कानून का मनमाना इस्तेमाल जारी रखा। दिलचस्प बात है कि इस मामले में सरकारें पार्टी लाइन से ऊपर उठी रहीं। हाल के वर्षों की बात करें तो भी यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में हमें यह प्रवृत्ति दिखती है तो नरेंद्र मोदी की अगुआई में एनडीए सरकार आने के बाद भी यह न केवल जारी रहती है बल्कि और तेज हो जाती है। बीते दशक के आंकड़े बताते हैं कि यूपीए सरकार के आखिरी चार वर्षों में यानी 2010 से 2014 के बीच राजद्रोह के 279 मामले दर्ज हुए थे, जबकि एनडीए सरकार के छह वर्षों में यानी 2014 से 2020 के बीच 519 मामले दर्ज हुए। प्रति वर्ष औसत यूपीए काल में 62 था, जो एनडीए काल में 79.8 हो गया। शीर्ष अदालत द्वारा खींची गई मर्यादा रेखा से वाकिफ होते हुए भी अगर पुलिस प्रशासन धड़ल्ले से इस कानून को लागू कर रहा है तो साफ है कि उसके पीछे मंशा
अदालत में अपराध साबित करने से ज्यादा आरोपी को परेशान करने की है। खासकर जो पत्रकार या जागरूक नागरिक, सरकार की कमियों की ओर ध्यान खींचता है उस पर राजद्रोह का मुकदमा उसे जनता की नजरों में देशद्रोही बनाने या दूसरे शब्दों में उसकी विश्वसनीयता कम करने में मदद करता है। वक्त आ गया है, जब इस कानून का दुरुपयोग रोकने के उपायों पर बहस करने के बजाय इस कानून को ही खत्म करने पर विचार किया जाए। तमाम गंभीर अपराधों, यहां तक कि आतंकवाद पर भी अंकुश लगाने के लिए जरूरी कानून देश में मौजूद हैं। औपनिवेशिक दौर में बने इस कानून की आज कोई जरूरत नहीं है।


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