प्रकाश के अप्रतिम स्नेत सूर्यदेव विश्व की अनेक संस्कृतियों में वंदनीय देवता या शक्ति के रूप में स्वीकृत हैं। सूर्य की प्रथम रश्मियों के आने के बाद ही सारी सृष्टि आवश्यक ऊर्जा प्राप्त कर जीवन-व्यापार में गतिशील हो पाती है। प्रकाश का कोई विकल्प नहीं है। वह चाहिए ही चाहिए। यह जरूर है कि अब प्रकाश के कृत्रिम स्नोत बिजली ने सारे जगत को आगोश में ले रखा है। नैसर्गिक या प्राकृतिक प्रकाश से हमारी दूरी बढ़ती जा रही है। प्रकाश की ऊर्जा के नए-नए स्नोतों की तलाश जारी है। आज भौतिकता और उपभोक्तावाद की गहराती छाया में लिप्सा और लालसा बढ़ रही है। उसी के साथ लक्ष्मी जी की उपासना का चलन भी खूब बढ़ रहा है। अब बाहर की दुनिया में प्रकाश का अतिरेक इतना हो रहा है कि आंखें चौंधिया जाती हैं। बाहर के उजाले में यह बात भूल ही जाती है कि प्रकृति के साथ सहजीवन की भावना की जगह उस पर कब्जा जमाना अल्पकालिक दृष्टि से प्रिय जरूर लगता है, पर दीर्घकालिक दृष्टि से क्रूर और भयानक है। अहंकार में डूबे आदमी को यह भी समझ में नहीं आता कि जीवन के सहज स्वाभाविक स्नोत किस तरह दिनोंदिन सूखते जा रहे हैं। भौतिक परिवेश, जिसमें जलवायु प्रमुख है, सभी आयामों में खंडित हो रही है और उसके संसाधनों का शोषण बढ़ता जा रहा है। धरती की सीमाओं को लांघते हुए विकास की यात्र विनाश की ओर बढ़ती लग रही है। दूसरी ओर जीवन की आधुनिक शैली और सामाजिक संस्थाएं जिस ढर्रे पर चल पड़ी हैं, वह भी चिंताजनक है। सामाजिक और मानसिक तौर पर जो संसाधन और सुरक्षा पारंपरिक समाज में अनौपचारिक रूप से मिलती थी वह नए दौर की आंधी में उखड़ती-उजड़ती जा रही है। उसकी जगह औपचारिक प्रविधान बढ़ते जा रहे हैं।
कानून और सरकारी नीतियां तर्क और आदर्श की रूपरेखा के बीच व्यवस्था का क्रम ढालते हैं। इस कागजी व्यवस्था को व्यवहार में उतारने की कवायद बेहद जटिल होती गई है और उसमें इतने छिद्र आ जाते हैं कि संसाधन पात्रों तक पहुंच ही नहीं पाते। गरीबों और हाशिये के लोगों के जीवन का अंधेरा कम होने की जगह घना होता जा रहा है। रोशनी पर कड़ा पहरा है और वह उच्च वर्ग के लिए सुरक्षित रहती है। समस्या यह भी है कि रोशनी या प्रकाश भी एक नहीं, अपितु कई रंग-रूपों वाला है। जीवनदायिनी रोशनी की पहचान करना भी कठिन हो रहा है। सतही रोशनी धोखा होती है, जो आकर्षक तो दिखती है, परंतु अंतत: भ्रम ही पैदा करती है। उसके साथ प्रच्छन्न और प्रत्यक्ष दोनों रूपों में हिंसा भी लगी रहती है। ऐसे माहौल में भय और अविश्वास अपना डेरा जमाने लगते हैं। मन में जो अंधकार डेरा डालता जा रहा है, उससे निपटना आज की बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का सामना हम सबको करना होगा। अंधकार का रंग काला होता है, परंतु छद्म रूप में अंधकार सफेदपोश होकर समाज में भी विचरने लगता है। चोरी, ठगी और धोखाधड़ी के नाना रूपों में अंधकार का दायरा निरंतर बढ़ रहा है। आए दिन निजी लाभ के आगे न्याय और नैतिकता के मानदंड कमजोर पड़ने की घटनाएं सुर्खियां बन रही हैं.
यदि अंतर्मन में अंधेरा बैठा हो तो उजाले में भी दृष्टि दूषित ही रहती है और सत्य नहीं दिखता या फिर देखना नहीं चाहते। और यदि देखते भी हैं तो उसकी आख्या-व्याख्या स्वार्थ के अनुसार ही की जाती है। तब सत्य की जगह असत्य को देखना या आरोपित करना ही चलन हो जाता है। ऐसे में दीपावली के पावन अवसर पर प्रकाश का आह्वान सत्य की ओर कदम बढ़ाने का उपक्रम है। दीपावली का पर्व शुभ, सात्विक वृत्तियों को जागृत करने की मानवीय आकांक्षा का प्रतीक है। दीपक अंधेरे के विरुद्ध संघर्ष करने और मानवीय जिजीविषा का प्रमाण है। मनुष्य की आंतरिक शक्ति और प्रतिज्ञा की प्रतिमूर्ति बना दीपक अद्भुत आविष्कार है। दीपक अंधकार को पास फटकने नहीं देता और दूर भगाए रखता है। उसका जीवन अपने लिए नहीं दूसरों के लिए ही बना हुआ है। दीपक आत्मदान का प्रतीक है।
महात्मा बुद्ध ने आह्वान करते हुए 'अप्प दीपो भव' का संदेश इसी अर्थ में दिया था कि व्यक्ति स्वयं अपने लिए प्रकाश का स्रोत बने, पर दीप की नियति होती है कि वह स्वभाव से विराट और निष्कलुष होता है। वह अभय की भावना के साथ नि:संकोच रूप से चतुर्दिक सबको प्रकाशित करता चलता है। यह करते हुए दीपक को अपने अस्तित्व की चिंता नहीं रहती। वह बताता है कि दूसरों के लिए सर्वस्व लुटा देना ही जीवन का अभिप्राय है। दीपक का आधार सत्य से बना है, उसमें तप का तेल है, दया उस दीपक की बाती है और क्षमा उसकी शिखा या लौ है। इस प्रकार सत्य, तप, दया और क्षमा का जीवन ही ताम का नाश करते हुए ज्योति की ओर ले जा सकेगा। जीवन कोई स्थिर और पूर्वनिश्चित वस्तु या घटना नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया है। उसका सतत निर्माण होता रहता है और नित्य नई-नई संभावनाएं जन्म लेती रहती हैं। आत्म-दीप ही वह उपाय है, जो सभी जनों को जीवन के आलोक से प्रकाशित कर सकेगा।
(लेखक शिक्षाविद् हैं)