जानलेवा प्रदूषण
इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक ओर बिगड़ते पर्यावरण को लेकर लंबे समय से लगातार चिंता जताई जाती रही है, इससे उपजी समस्याओं के समाधान के लिए तमाम उपाय सुझाए जाते हैं
Written by जनसत्ता: इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक ओर बिगड़ते पर्यावरण को लेकर लंबे समय से लगातार चिंता जताई जाती रही है, इससे उपजी समस्याओं के समाधान के लिए तमाम उपाय सुझाए जाते हैं, दूसरी ओर जमीनी स्थिति दिनोंदिन खराब होती जा रही है। हालत यह है कि पर्यावरण में बहुस्तरीय उथल-पुथल की वजह से अलग-अलग रूप में दुनिया को बड़ा नुकसान हो रहा है और अकेले प्रदूषण के चलते हर साल लाखों लोगों की जान चली जाती है। इस मसले पर एक ताजा रपट में सामने आए ये तथ्य एक बार फिर यह चिंता पैदा करने के लिए काफी हैं कि पिछले दो दशकों के दौरान हवा में घुलते प्रदूषण के चलते भारी तादाद में लोगों की मौत हो गई।
सेंटर फार साइंस ऐंड एनवायरनमेंट यानी सीएसई की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक, बीते बीस सालों में हवा में सूक्ष्म कणों यानी पीएम 2.5 में तेज बढ़ोतरी की वजह से होने वाली मौतों की तादाद कम से कम ढाई गुना बढ़ गई है। 'भारत की पर्यावरण रिपोर्ट' में यह बताया गया है कि दुनिया भर में वायु प्रदूषण के कारण पिछले दो दशक में साठ लाख से ज्यादा लोगों की जान गई। अकेले भारत में इस अवधि में 10.67 लाख लोग दुनिया से चले गए।
विचित्र यह है कि युद्ध या अन्य प्रत्यक्ष कारणों से होने वाली मौतों की संख्या से तो दुनिया भर में परेशानी महसूस की जाती है, लेकिन प्रदूषण के चलते इतनी बड़ी तादाद में लोगों की जान चली जाती है और यह कोई ऐसी चिंता पैदा नहीं कर पा रही है, जिसके तत्काल समाधान की जरूरत महसूस की जा सके। रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में वायु प्रदूषण के जोखिम से जुड़े स्वास्थ्य प्रभावों से जीवन के पहले महीने में वैश्विक स्तर पर चार लाख छिहत्तर हजार शिशुओं की मौत हो गई।
इनमें से भारत में एक लाख सोलह हजार बच्चों की जान गई। जाहिर है, प्रदूषण की वजह से होने वाली मौतों के आंकड़े भयावह हैं। इस समस्या की चपेट में आकर जान गंवाने वाले ज्यादातर लोगों की जान बचाई जा सकती थी, अगर समय रहते आबोहवा के जानलेवा स्तर पर पहुंचने से रोकने के लिए दुुनिया भर में उचित उपाय किए जाते। लेकिन सच यह है कि पिछले कई दशकों से विश्व भर में इस मसले पर लगातार आयोजनों और सम्मेलनों के बावजूद प्रदूषण के असर की तस्वीर और बिगड़ती गई है।
गौरतलब है कि पीएम 2.5 हवा में मौजूद वे सूक्ष्म कण होते हैं, जो शरीर में गहराई से प्रवेश कर जाते हैं और फिर फेफड़ों और श्वसन नली में सूजन को बढ़ा देते हैं। इसके असर से शरीर में रोगों से प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो जाती है और सांस से संबंधित कई तरह की समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है। सन 2019 में खराब वायु गुणवत्ता दुनिया भर में जल्दी मौत का चौथा प्रमुख जोखिम वाला कारक था। यह केवल उच्च रक्तचाप, तंबाकू के उपयोग और खराब आहार से भी आगे निकल गया।
सवाल है कि इतने लंबे समय से वायु प्रदूषण के इस पहलू और कारक के एक जगजाहिर समस्या होने और इसके बारे में सब कुछ ज्ञात होने के बावजूद इसकी रोकथाम के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया जा सका! जबकि आए दिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण की बिगड़ती हालत और उसके समाधान को लेकर व्यापक पैमाने पर चिंता जताई जाती है। आखिर वे कौन-से कारण हैं कि कार्बन उत्सर्जन पैदा करने वाले धनी और विकसित देश हर मौके पर इस मसले पर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं और समस्या की गंभीरता का ठीकरा अविकसित या विकासशील तीसरी दुनिया के देशों पर फोड़ देते हैं?