राजनीति में अपराधी
अभी इसके पहले चरण के लिए पर्चे भरे गए हैं, जिसमें नवासी सीटों पर इक्कीस फीसद प्रत्याशी आपराधिक छवि के उतरे हैं। पिछले चुनाव में इनकी संख्या पंद्रह फीसद थी।
Written by जनसत्ता; अभी इसके पहले चरण के लिए पर्चे भरे गए हैं, जिसमें नवासी सीटों पर इक्कीस फीसद प्रत्याशी आपराधिक छवि के उतरे हैं। पिछले चुनाव में इनकी संख्या पंद्रह फीसद थी। अभी दूसरे चरण की प्रक्रिया शुरू होगी तो इस संख्या में कुछ कमी-बेशी हो सकती है।
हैरानी की बात है कि कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिसने आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों से परहेज किया हो। यहां तक कि राजनीतिक शुचिता का दम भरने वाली आम आदमी पार्टी ने सबसे अधिक, तेरह फीसद प्रत्याशी, आपराधिक पृष्ठभूमि के खड़े किए हैं। खुद प्रत्याशियों ने अपने हलफनामे में यह बात स्वीकार की है। उसके बत्तीस में से छब्बीस उम्मीदवारों पर गंभीर अपराध के मुकदमे दर्ज हैं। इसी तरह कांग्रेस के अठारह और भाजपा के ग्यारह उम्मीदवारों पर गंभीर अपराध के मुकदमे चल रहे हैं।
राजनीति में कई बार प्रतिद्वंद्वी दलों द्वारा रंजिश के चलते या सबक सिखाने की गरज से नेताओं पर मुकदमे थोप दिए जाते हैं। आंदोलनों आदि के दौरान भी उन पर मुकदमे दर्ज होते हैं। ऐसे मामलों को राजनीति से प्रेरित मान कर प्राय: नजरअंदाज कर दिया जाता है। मगर हत्या, बलात्कार, सार्वजनिक धन का गबन, चुनाव संबंधी अपराध, जिनमें पांच साल से अधिक कैद का प्रावधान है, गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं।
राजनीतिक दलों से अपेक्षा की जाती है कि ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारने से परहेज करें। मगर आजकल राजनीतिक दलों का जोर प्रत्याशियों के चरित्र पर नहीं, उनके जीतने की संभावना पर रहता है, इसलिए वे दबंग किस्म के लोगों को ज्यादा अनुकूल पाते हैं। यही हाल धनबल वालों का है।
जिसके पास अधिक धन है, जो किसी भी राजनीतिक दल को आर्थिक रूप से अधिक मदद करने में सक्षम हैं, उन्हें राजनीतिक दल चुनाव का टिकट पकड़ा देते हैं। अक्सर गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वालों के पास धनबल भी अधिक होता है और राजनीतिक संरक्षण पाने की मंशा से जीत की संभावना वाले राजनीतिक दल का दामन थाम लेते हैं। उनमें से बहुत सारे चुनाव जीत भी जाते हैं।
राजनीति में आपराधिक छवि के लोगों की बढ़ती पैठ इसलिए चिंता का विषय है कि उनके सत्ता में आने से न सिर्फ उन पर चल रहे मुकदमों में न्याय प्रभावित होता, बल्कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना चुनौती बना रहता है। फिर सबसे बड़ा लोकतांत्रिक सैद्धांतिक सवाल सदा अनुत्तरित रह जाता है कि जिन लोगों को खुद कानून की परवाह नहीं, उन्हें कानून बनाने का अधिकार ही क्यों दिया जाना चाहिए।
मगर चूंकि साफ-सुथरी छवि वालों की अपेक्षा धनबल और बाहुबल वाले मतदाताओं पर दबाव बनाने और उन्हें रिझाने में अधिक कामयाब देखे जाते हैं, इसलिए राजनीतिक दल उनसे निकटता रखने में परहेज नहीं करते। कुछ तो राजनीति में दबंगई एक बड़े मूल्य की तरह स्थापित होती गई है, इसलिए भी राजनीतिक पार्टियां ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़े रखती हैं। मगर इस प्रवृत्ति से लोकतंत्र को कितना नुकसान पहुंचता है, इस पर सोचने का मौका किसी दल के पास नहीं है।