'अपराधी' नहीं 'पीड़ित'
प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के पुत्र आर्यन खान की नशीले पदार्थों के सेवन के जुर्म में लेकर हुई गिरफ्तारी के सन्दर्भ में यह रहस्योद्घाटन बहुत महत्वपूर्ण है
आदित्य चोपड़ा: प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के पुत्र आर्यन खान की नशीले पदार्थों के सेवन के जुर्म में लेकर हुई गिरफ्तारी के सन्दर्भ में यह रहस्योद्घाटन बहुत महत्वपूर्ण है कि कुछ दिन पहले ही केन्द्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मन्त्रालय ने नशीले पदार्थ प्रतिरोधक विभागों को सिफारिश की थी कि एेसे नशे की लत में पड़े हुए उन लोगों को 'अपराधी' के स्थान पर 'पीड़ित' समझा जाये जिनके पास से बहुत कम मात्रा में प्रतिबन्धित नशीले पदार्थ जब्त होते हैं। सामाजिक मन्त्रालय ने एेसे मामलों को गैर आपराधिक श्रेणी में डालने की अनुशांसा करने के साथ यह सिफारिश भी की थी कि इस किस्म के लोगों को जेल नहीं भेजा जाना चाहिए और उनका सरकारी निगरानी वाले सुधार गृहों में इलाज कराया जाना चाहिए जिससे उनकी नशे की लत छूट सके। इस बाबत मन्त्रालय ने नशीले पदार्थ अधिनियम में संशोधन करने की सिफारिश करते हुए कहा था कि जिन लोगों के पास से अपनी निजी खपत हेतु नशीला पदार्थ पकड़ा जाता है उसे अपराध नहीं माना जाना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि सरकार का सामाजिक न्याय मन्त्रालय इस समस्या के उस मानवीय पहलू को ऊपर रखना चाहता है जो नशे की आदत छुड़ाने को सजा से बेहतर मानता है। वास्तविकता भी यही है कि भारत के विभिन्न शहरों से लेकर गांवों और धार्मिक स्थलों तक में चरस या गांजा पीने के आदी लोग मिल जायेंगे। उन्हें यह नशे की लत क्यों लगती है इसके भी विभिन्न कारण गिनाये जा सकते हैं मगर इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे शराब के नशे के विकल्प के रूप में ही इसे चुनते होंगे। भारत में शराब पीना जब अपराध नहीं है तो कम मात्रा में गांजा या चरस पीना अपराध की श्रेणी में किस तर्क से डाला जा सकता है? बेशक नशीले पदार्थों का कारोबार या व्यापार करना सामाजिक व आर्थिक रूप से अपराध है और इसे रोकने के लिए सभी आवश्यक कड़े कदम उठाये जाने चाहिए मगर जो लोग केवल अपने नशे की आदत की वजह से निजी तौर पर खपत करते हैं उन्हें अपराधी बना कर जेलों में ठूंस देना प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध ही कहा जायेगा। भारत में तो नशे के साथ धार्मिक प्रतीक तक जुड़े हुए हैं अतः हमें समग्रता में चरस या गांजे के सेवन करने वाले नशेडि़यों के बारे में सोचना होगा। सामाजिक तौर पर भी ऐसे लोगों के नाम के साथ धब्बा लग जाता है अतः उन्हें परिस्थितियों का शिकार ही समझा जाना चाहिए जिसकी वजह से वे एेसे नशे की लत में पड़ जाते हैं। इस दृष्टि से सामाजिक न्याय मन्त्रालय का यह मत पूरी तरह तार्किक है कि एेसा नशा करने वालों को पीड़ितों की श्रेणी में डाला जाये। अतः यह बेवजह नहीं है कि पिछले महीने ही केन्द्र के राजस्व विभाग ने गृह मन्त्रालय, स्वास्थ्य मन्त्रालय, सामाजिक न्याय व अधिकारिता मन्त्रालय, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो व सीबीआई से पूछा था कि नशीले पदार्थ अवरोधक अधिनियम में संशोधन करने के बारे में उनका विचार है और एेसा करने के लिए उनके पास कौन से तर्क हैं। राजस्व मन्त्रालय ही नशीले पदार्थों के कारोबार विरोधी नियम लागू करने वाला मन्त्रालय होता है। सामाजिक न्याय मन्त्रालय ने राजस्व विभाग को अपने उत्तर में ही निजी तौर पर नशेड़ियों को अपराधी न मान कर पीड़ित मानने की सलाह दी। वर्तमान में नशीले पदार्थ प्रतिरोधी अधिनियम के तहत फिलहाल उसी नशेड़ी व्यक्ति पर मुकदमा नहीं चलाया जाता है जो स्वयं नशे की लत छोड़ने के लिए सुधार गृह जाने या इलाज की दरख्वास्त करे। मगर इस कानून के तहत पहली बार नशे का सेवन करने वाले या केवल तफरीह के लिए इसका स्वाद चखने वालों के लिए किसी प्रकार की रियायत का प्रावधान नहीं है। इसमें शीधे नशेड़ी को पकड़ कर उसे एक साल की सजा या 20 हजार रुपए का जुर्माना या दोनों देने की व्यवस्था है। जाहिर है कि किसी भी विकासोन्मुख या प्रगतिशील समाज के लिए एेसे कानूनी प्रावधान अपराधी को अपराधी ही रहने देने की मंशा के जाने जायेंगे न कि उसे सुधारने की मंशा वाले। इसमें एक यक्ष प्रश्न यह भी खड़ा हो सकता है कि किसी व्यक्ति को नशे की लत क्यों और कैसे तथा किन परिस्थितियों में लगती है? संभवतः सामाजिक न्याय मन्त्रालय ने इस समस्या का गहराई से वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण किया जिससे वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि निजी खपत का नशीला पदार्थ रखने वाले व्यक्तियों को जेल नहीं बल्कि सुधार गृहों में भेजा जाना चाहिए। मगर भारत में नारकोटिक्स ब्यूरो जिस तरह दो ग्राम से लेकर छह ग्राम तक नशीले पदार्थ रखने वाले लोगों के साथ पक्के अपराधियों जैसा व्यवहार कर रहा है उससे यही लगता है कि नशीले पदार्थों के कारोबार के तार जैसे एेसे युवाओं से ही जुड़े हुए हैं जो तफरीह या मौज-मस्ती के लिए अथवा आदतन नशेड़ी हो जाने की वजह से एेसे पदार्थों का सेवल करते हैं। नारकोटिक्स ब्यूरो को इस राज का पता लगाना चाहिए कि कुछ दिनों पहले गुजरात के मून्द्रा बन्दरगाह पर जो तीन हजार किलो नशीला पदार्थ पकड़ा गया था उसके तार कहां से जुड़े हुए हैं। मगर फिल्म व्यवसाय से जुड़े लोगों को पकड़ कर वह खबरों की सुर्खियों में तो खूब आता रहता है मगर नशे के थोक व्यापारियों की खबर नहीं ले पाता। सवाल आर्यन खान का नहीं है बल्कि एक एेसे युवा का है जो वर्तमान नौजवान पीढ़ी का है और मात्र 23 साल का है। इतना जरूर है कि वह एक बड़े बाप शाहरुख खान का बेटा है मगर है तो युवा ही। उसके साथ जो अन्य 19 लोग पकड़े गये हैं उनमें से भी अधिसंख्य युवा ही हैं। अतः इन सभी युवाओं को नशे की लत से मुक्त कराने के उपाय किये जाने चाहिए न कि इन्हें जेलों में ठूंस कर सुर्खियों में रहने के। नारकोटिक्स ब्यूरो देश का एेसी कर्त्तव्यपरायण और तेज-तर्रार एजैंसी है जिसने अभी तक अपना दायित्व पूरी संजीदगी के साथ निभाया है और कई बार संगीन मामलों तक का भंडाफोड़ भी किया है। इसमें कार्यरत अधिकारियों को राष्ट्रीय सम्मान तक मिला है। अतः इसे भी सामाजिक न्याय मन्त्रालय की तरह वैज्ञानिक तरीके से विचार करना चाहिए।