Corona Virus In India : क्या चीन के लिए इंडिया में एक टूलकिट की तरह काम कर रही है लैंसेट?

कोरोनावायरस (Corona Virus) से पूरी दुनिया परेशान है

Update: 2021-05-13 12:35 GMT

संयम श्रीवास्तव। कोरोनावायरस (Corona Virus) से पूरी दुनिया परेशान है. कोरोना की पहली लहर ने दुनिया के तमाम बड़े देशों को और उनके मेडिकल सिस्टम (Medical System) को घुटनों पर ला दिया था. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे विकसित देशों में लाशों का अंबार लगा था, लेकिन तब भारत एक बड़ी आबादी और कम मेडिकल संसाधनों के साथ कोरोना वायरस से डट कर मुकाबला कर रहा था. उस वक्त दुनिया की किसी भी मैगजीन ने ब्रिटेन-फ्रांस या चीन की आलोचना नहीं कि ये देश अपने तमाम संसाधनों के बावजूद अपने हजारों नागरिकों को मरने से बचा नहीं सके. पर अपने संसाधनों के बूते दो-दो वैक्सीन डिवेलप करने वाले देश की आलोचना करने के लिए कई लोग तैयार हो गए हैं. हालांकि 2021 मार्च के अंत और अप्रैल के मध्य तक भारत में कोरोना की दूसरे लहर ने दस्तक दी और भयंकर तबाही मचाई. अप्रैल के अंत तक यह लहर अपनी चरम पर पहुंच गया और हर दिन 4 लाख से ज्यादा कोरोना के मामले सामने आने लगे. भारत के लोग बिल्कुल मानते हैं कि कोरोना से लड़ने में यहां का मेडिकल सिस्टम बुरी तरह फेल हुआ है, लेकिन यह भारत का अंदरूनी मामला है. जब दूसरे देशों में लाशें गिर रहीं थीं तो भारत ने उनकी रणनीति पर चोट करने के बजाय उनकी सहायता के लिए हर वक्त तैयार खड़ा था.


ब्रिटेन की मेडिकल साप्ताहिक शोध पत्रिका 'लैंसेट' का दुनियाभर में बड़ा नाम है. ये पत्रिका अपने शोधपत्रों को लेकर दुनिया भर में तारीफ बटोरती है. यही नहीं लैंसेट में छपी रिपोर्ट को दुनिया भर के वैज्ञानिक मान्यता देते हैं. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है कि यह पत्रिका जो भी कह दे उसे लोगों को आंख मूंद के मान लेना चाहिए, क्योंकि कई बार ऐसा हुआ है जब ऐसी पत्रिकाएं और संस्था किसी एजेंडे पर चलती नजर आईं हैं. हाल ही में लैंसेट ने अपने संपादकीय में भारत सरकार के खिलाफ जिस तरह का लेख छापा है, उससे कहीं ना कहीं इसमें एक गंदी राजनीति की बू आती है.

लैंसेट ने अपने संपादकीय में क्या लिखा
मेडिकल जर्नल लैंसेट ने अपने आठ मई को प्रकाशित अंक में लिखा कि ट्विटर पर मोदी सरकार अपनी आलोचनाओं और खुली चर्चा को दबा रही है जो इस महामारी के समय में बिल्कुल भी माफी के काबिल नहीं है. इसके साथ लैंसेट ने भारत के टीकाकरण अभियान को भी फेल बताया. उसने लिखा कि, केंद्र सरकार के स्तर पर टीकाकरण अभियान भी फेल हो गया. केंद्र सरकार ने टीकाकरण को बढ़ाने और 18 साल से अधिक उम्र के सभी लोगों को वैक्सीन देने के बारे में राज्यों से कोई सलाह नहीं ली और अचानक पॉलिसी बदल दी, जिससे सप्लाई में कमी हुई और अव्यवस्था फैल गई. यही नहीं लैंसेट ने भारत के चुनावी रैलियों और कुंभ पर भारत सरकार को घेरा है. अब सवाल उठता है कि ये बाते कुछ हद तक तो सही ही हैं तो इस पर समस्या क्या है. दरअसल समस्या ये है कि लैंसेट जिस तरह से भारत की कमियों को देखता है क्या उसी तरह से वो चीन के बारे में लिख सकता है. क्या वह लिख सकता है कि चीन के वुहान से निकल कर किस तरह इस वायरस ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया. या लैंसेट ऑस्ट्रेलियाई अखबार के उस दावे के बारे में कुछ लिख सकती है जिसमें दावा किया गया था कि चीन इस वायरस को एक जैविक हथियार के रूप में तैयार कर रहा था. नहीं वह बिल्कुल नहीं लिख सकता. जानते हैं क्यों, क्योंकि इस जर्नल का प्रकाशन लंदन, न्यू यॉर्क के अलावा चीन के पेइचिंग से भी होता है और उसे पता है कि चीन के खिलाफ लिखने पर उसके साथ क्या हो सकता है.

लैंसेट की चीन वाली राजनीति समझिए
लैंसेट एक ऐसी पत्रिका है जो चिकित्सा संबंधी शोध करती है और उसकी रिपोर्ट को प्रकाशित करती है. इसके साथ लैंसेट का काम है कि वह क्लिनिकल रिसर्च और प्रि-क्लिनिकल रिसर्च को सामने लाए, किसी बिमारी का इलाज कैसे किया जाए इसकी समीक्षा करे. लेकिन बीते कुछ सालों से लैंसेट कर क्या रहा है. दरअसल पिछले कुछ सालों से लैंसेट केवल कुछ देशों को टार्गेट कर रहा है और उनकी के खिलाफ छाप रहा है. उस पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि लैंसेट ये सब कुछ देशों के कहने पर करता है. इसमें सबसे ज्यादा चीन का नाम सामने आता है.

आपको याद होगा कि जब कोरोना ने भारत में पहली बार दस्तक दी थी तब दुनिया के पास इससे निपटने का कोई इलाज नहीं था. लेकिन भारतीय चिकित्सकों ने हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन जिसे एचसीक्यू भी कहा जाता है उसे कोरोना के इलाज में प्रभावी पाया और उससे मरीजों का इलाज शुरू किया. यह इतना कामयाब हुआ कि इसकी मांग अमेरिका जैसे देश को भी भारत से करनी पड़ी. वहीं दुनिया के और देश भी इस दवा की मांग भारत से कर रहे थे. दरअसल हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का उत्पादन भारत में भारी मात्रा में किया जाता है इस वजह से इस दवा का डिमांड बढ़ने से भारत को आर्थिक और कूटनीतिक दोनों ही रूप से फायदा हो रहा था. इस बात से सबसे ज्यादा मिर्ची जिसे लग रही थी वह था चीन. चीन भारत का दुश्मन देश है वह दुनिया भर में भारत का विरोध करता आया है ऐसे में वह कभी नहीं चाह रहा था कि जो बिमारी उसके देश से निकल कर पूरी दुनिया में तबाही मचा रही है उसका इलाज भारत के पास मौजूद हो. जब एचसीक्यू की डिमांड पूरी दुनिया में तेज हो गई तो उसी वक्त लैंसेट ने एक शोध छापा और उसमें दावा किया गया कि हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दवा कोरोना के इलाज में प्रभावी नहीं है. इसी रिपोर्ट के आधार पर WHO ने भी इस दवा के क्लिनिकल ट्रायल पर रोक लगा दी.

अब लैंसेट पर शक इसलिए गहराता है क्योंकि लैंसेट ने ये रिपोर्ट छापने के कुछ दिनों बाद ही इसे वापस ले लिया और इसे आंतरिक जांच का विषय बता दिया. जाहिर सी बात है कि एक ऐसी पत्रिका जिसमें छपी कोई भी चीज लोगों और WHO जैसी संस्था के लिए लक्ष्मण रेखा होती है उसमें ऐसे ही कैसे कोई गलत चीज छप गई. जाहिर सी बात है रातों-रात तो ना शोध हुए होंगे ना ये रातों-रात छपी होगी. कोई चीज छपने से पहले कई परिक्षणों से गुजरती है तब जा कर के कहीं वह छपती है. कुछ लोगों ने इस बात को लेकर चीन की तरफ उंगली उठाई और माना गया कि यह सब कारसतानी चीन के इशारे पर हुई है, क्योंकि चीन कभी नहीं चाहता था कि भारत या कोई भी अन्य देश कोरोना की दवा बना कर इस बीमारी से उपजे एक बड़े मार्केट पर कब्जा कर ले. उसे पता था कि अगर एक बार इस महामारी की दवा किसी देश ने बना ली तो उसे आर्थिक रूप से कितना फायदा होने वाला है.

मोदी सरकार के खिलाफ लिखने वाली लेखक चीन से हैं
जब 8 मई को लैंसेट का लेख छपा तो बीजेपी और मोदी सरकार को घेरने वाले नेताओं के लिए एक हाथियार साबित हुआ. लेकिन जैसे ही लैंसेट की यह रिपोर्ट वायरल होने लगी तो लोग इसके बारे में पड़ताल करने लगे. पड़ताल के बाद कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में ये दावा किया गया कि लैंसेट में छपे इस लेख को जिसमें भर-भर के भारत सरकार की बुराई की गई है, उसे लैंसेट एशिया की एडिटर Helena Hui Wang ने लिखा है जो लैंसेट एशिया की एडिटर हैं और चीन की निवासी हैं. अगर इस रिपोर्ट को हम सच मान लें तो आपको अंदाजा लग ही गया होगा की लोग इस लेख को क्यों चीन से प्रेरित बता रहे हैं.

फर्जीवाड़े का बादशाह है चीन
चीन हमेशा से खुद को दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनाना चाहता है. लेकिन उसे यह मुकाम कैसे हासिल होगा इसको लेकर उसके पास ना कोई विजन है ना कोई रास्ता. इसलिए वह हमेशा फर्जीवाड़े का साथ लेकर खुद को बेहतर दिखाने की कोशिश करता है. दुनियाभर के रिसर्च पेपर पर ध्यान रखने वाली रिट्रैक्शन वॉच के मुताबिक चीन के बहुत से शोधकर्ताओं ने अपने रिसर्च पेपर को वापस ले लिया था क्योंकि उनके द्वारा दिए गए आंकड़ों पर जब दुनिया के और वैज्ञानिकों ने रिसर्च किया तो रिजल्ट वो नहीं आए जिसका जिक्र चीन के वैज्ञानिकों ने किया था. यही नहीं अप्रैल 2017 में एक साइंटिफिक जर्नल ने दुनिया भर के 107 बायॉलजी रिसर्च पेपर को छापने से इनकार कर उन्हें वापिस कर दिया था. आपको जान कर हैरानी होगी कि इनमें से ज्यादातर लेखक चीन के थे, जिनके रिसर्च पेपर वापिस कर दिए गए थे. उसी समय एक जांच में पता चला कि चीन में रिसर्च पेपर को लेकर एक ब्लैक मार्केट का रैकेट चल रहा है. जहां पॉजिटिव पियर रिव्यू के साथ-साथ पूरा-पूरा रिसर्च पेपर तक बिकता था


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