कोरोना, वैश्वीकरण और महात्मा गांधी का आर्थिक विकास का मॉडल आज कहीं श्रेष्ठतर विकल्प

संकट सदैव संभावनाओं की राह तलाशने को प्रेरित करता है।

Update: 2020-10-20 08:13 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। संकट सदैव संभावनाओं की राह तलाशने को प्रेरित करता है। कोरोना संकट ने भी नई संभावनाओं और एक नए विमर्श को जन्म दिया है। संकट के इस दौर में हम ग्लोबल से लोकल की तरफ उन्मुख हो रहे हैं। 20वीं सदी के अंत की वैश्वीकरण की लोकप्रिय अवधारणा और विकास के विभिन्न प्रतिमानों पर फिर से चर्चा जोर पकड़ रही है। सामान्य अर्थो में वस्तु, सेवा तथा वित्त के मुक्त प्रवाह की प्रक्रिया ही वैश्वीकरण है और वैश्वीकृत विश्व ही इस प्रक्रिया का लक्ष्य है, जिसे पाया जाना है।

वैश्वीकरण एक आर्थिक संकल्पना है जिसका तात्पर्य घरेलू अर्थव्यवस्था का वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण है। परंतु इसके सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक आयाम भी हैं। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप शेष विश्व में हो रहे घटनाक्रम का घरेलू अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता रहा है। विदेशी वस्तुओं और पूंजी के लिए घरेलू बाजार खोलना पड़ा। विदेशी पूंजी और व्यापार से सभी प्रतिबंध हटा दिए गए। इससे घरेलू उत्पादों के लिए विदेशी बाजारों में पहुंच मिली। गुणवत्तायुक्त उत्पादों का उत्पादन किया जाता है, जिससे अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टिकने में मदद मिलती है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया में मुख्य रूप से आर्थिक नीतियों में बदलाव किया गया है। विभिन्न देशों द्वारा आयात लाइसेंस में ढील दी जा रही है अर्थात आयात पर से प्रतिबंध को सीमित किया जा रहा है। साथ ही शुल्क ढांचे को ताíकक बनाया जा रहा है। वित्तीय और व्यापार क्षेत्र में सुधार किया जा रहा है। आधारभूत ढांचे में भी सुधार करके अर्थव्यवस्था को जीवंत बनाने की कोशिश की जा रही है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप औद्योगिक उत्पादन में उत्साह है और निजी क्षेत्र का प्रवेश सरल हुआ है। उपभोक्ता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है तथा बाजार के एकाधिकार की प्रवृत्ति और प्रतिस्पर्धा में बदलाव आया है।

वैश्वीकरण की अवधारणा और प्रक्रिया को लेकर नकारात्मक विचार और परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। नकारात्मक प्रभाव के अंतर्गत कृषि क्षेत्र की अनदेखी की जा रही है। विकास की प्रक्रिया मात्र शहरों तक सीमित हो गई है। उपभोक्तावाद का प्रसार दिखता है, पर्यावरण की अनदेखी की जा रही है, सांस्कृतिक क्षरण हो रहा है तथा एक प्रकार से आर्थिक उपनिवेशवाद स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। नकारात्मक प्रभाव यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह और भी व्यापक है। विकास की विभिन्न अवधारणाओं के बीच दुनिया में असमानता, गरीबी और भुखमरी जैसी समस्याएं निरंतर बढ़ती जा रही हैं। इन नकारात्मक प्रभावों को देखकर यह सवाल उठता है कि क्या यह अवधारणा असफल है या इसमें कुछ सुधार की जरूरत है या विकास की इस संकल्पना में किसी नए चिंतन की आवश्यकता है।

गांधी की अवधारणा : महामारी से पैदा हुए वैश्विक संकट के इस दौर में यदि हम गांधीवादी चिंतन का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो वैश्वीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक प्रभाव को समाप्त करने की एक नई राह दिखाई पड़ती है। ऐसे में हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि वैश्वीकरण के इस दौर में क्या गांधीवादी चिंतन प्रासंगिक है?

समकालीन आधुनिक भौतिकतावादी समाज में जहां असंतोष, अवसाद, असमानता और असंवेदनशीलता जैसी समस्याएं हावी हैं, वहां विकास से जुड़ी समस्याओं के संदर्भ में गांधीवादी चिंतन न सिर्फ प्रासंगिक है, बल्कि इसमें विशेष अभिरुचि भी ली जा रही है। वैसे तो गांधी जी ने आर्थिक विकास का कोई विशेष सिद्धांत नहीं प्रस्तुत किया है, परंतु विभिन्न अवसरों पर दिए गए उनके व्याख्यानों और देश की समस्याओं पर विचार व राजनीतिक दर्शन में विकास के प्रतिरूप को देखा जा सकता है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया को कुछ विद्वान सिर्फ पश्चिमीकरण मानते हुए इसकी आलोचना करते हैं। गांधी भी किसी देश की उन्नति के लिए उस देश की आíथक सामाजिक व्यवस्था को सिर्फ पश्चिमी सभ्यता में डालने के पक्षधर नहीं थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि पश्चिमी सभ्यता मनुष्य को उपभोक्तावाद का रास्ता दिखा कर नैतिक पतन की ओर ले जाती है। गांधी ने पश्चिमी सभ्यता और आधुनिक सभ्यता को समवर्ती मानते हुए उसकी विस्तृत समीक्षा की। वर्ष 1927 में यंग इंडिया में उन्होंने लिखा, मैं यह नहीं मानता की इच्छाओं को बढ़ाने और उनकी पूíत के साधन जुटाने से संसार अपने लक्ष्य की ओर एक कदम भी बढ़ पाएगा। आज की दुनिया में दूरी और समय के अंतराल को कम करने, भौतिक इच्छाओं को बढ़ाने और उनकी तृप्ति के लिए धरती का कोना कोना छान मारने की अंधी दौड़ चल रही है, वह मुङो बिल्कुल पसंद नहीं है।

गांधी जी ने 1938 में हिंद स्वराज में लिखा है कि आधुनिक सभ्यता दिखावटी तौर पर समानता के सिद्धांत को सम्मान देती है, परंतु यथार्थ के धरातल पर यह प्रजातिवाद को बढ़ावा देती है। इसमें अश्वेतों को मानवीय गरिमा से वंचित रखा जाता है और उनका भरपूर शोषण किया जाता है। गांधी जी के अनुसार आधुनिक सभ्यता के अंतर्गत चेतन की तुलना में जड़ को, प्राकृतिक जीवन की तुलना में यांत्रिक जीवन को और नैतिकता की तुलना में राजनीति और अर्थशास्त्र को ऊंचा स्थान दिया जाता है। उनकी ये बातें वर्तमान दुनिया पर पूर्ण रूप से लागू होती है, जो धीरे धीरे पश्चिमी विकास के प्रतिमान पर आधारित होता जा रहा है। इसलिए संकट के इस दौर में विकास के नए प्रतिमान के विकल्प के रूप में गांधीवादी मॉडल श्रेष्ठतर विकल्प है।

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