कोरोना और चुनावी रैलियां: महामारी की आफत के बीच कौन करेगा जनता की चिंता?

उत्तर प्रदेश में  इस वक्त सपा की परिवर्तन यात्रा और भाजपा की जनविश्वास यात्राओं के अलावा भारी भीड़ वाली रैलियां लगातार हो रहीं हैं

Update: 2022-01-06 08:12 GMT
माना कि लोकतंत्र में चुनाव एक उत्सव होता है। पर क्या इस लोकतंत्र में आम आदमी के जीवन की भी कोई कीमत है? कोरोना संकट के समय पिछले साल मार्च-अप्रैल में जब  चार राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एस बनर्जी ने देश में कोरोना की दूसरी लहर के लिए चुनाव आयोग को दोषी माना।
कोर्ट ने अपनी तल्ख टिप्पणी में कहा था- चुनाव आयोग के अधिकारियों पर अगर  ' 'मर्डर केस' का 'चार्ज' लगे तो भी गलत नहीं।
हाल में माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद के जज साहब ने भी सरकार से कहा कि कोरोना के बढ़ते मामले को देखते हुए विधानसभा चुनाव स्थगित करने पर विचार करना चाहिए। पर चुनाव आयोग  के अधिकारियों ने उत्तर प्रदेश के अधिकारियों से बातचीत कर ऐलान कर दिया कि चुनाव समय पर ही होंगे।
इधर, जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें सबसे ज्यादा  दिलचस्पी इस वक्त उत्तर प्रदेश के चुनावों को लेकर है। शायद इस वजह से  कि सन् 2022 में उत्तर प्रदेश के  चुनावी नतीजे सन् 2024 की आगामी लोकसभा चुनावों की राजनीतिक पृष्ठभूमि तैयार करने में मददगार साबित हो।
यूपी में चुनावी समीकरण और कोरोना
उत्तर प्रदेश में  इस वक्त सपा की परिवर्तन यात्रा और भाजपा की जनविश्वास यात्राओं के अलावा भारी भीड़ वाली रैलियां लगातार हो रहीं हैं। इन रैलियों में खूब भीड़ हो रहीं है। कांग्रेस ने भी रैलियों और " मैं हूँ, लड़ सकती हूं" के नारे के तहत जन समर्थन जुटाने की गर्ज से मैराथन दौड़ का आयोजन किया।लेकिन जैसे ही ओमिक्रोन संक्रमण तेज हुआ, एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाते हुए और पिछले साल पश्चिम बंगाल चुनावों से सबक लेते हुए कांग्रेस ने अपनी चुनावी रैलियां रद्द कर दिया है। अब बारी सत्ताधारी भाजपा और सपा की हैं।
देखना यह है कि ओमिक्रोन के बढ़ते संक्रमण के बाद इन दलों के राजनीतिक गतिविधियों पर क्या असर होता है? हालांकि इन राजनीतिक दलों की भीड़भरी- जन जुटान वाली रैलियों और सरकारी लोकार्पण-शिलान्यास का जो सिलसिला चल पड़ा था, उससे कोरोना की सारी हिदायतों की लगातार धज्जियां उड़ रहीं थी। ऐसे समय में कोरोना संक्रमण बढ़ते संकट और राजनीतिक दलों के गैर जिम्मेदाराना रवैये को याद करते हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक और कविता कि-
देश कागज पर बना  नक्शा नहीं होता/
कि एक हिस्से के फट जाने पर/
बाकी हिस्से साबुत रहें/
इस दुनिया में  आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं/ न ईश्वर/न ज्ञान/ न चुनाव/
पर इसकी परवाह मौजूदा चुनावी वक्त में कम से कम राजनेताओं और राजनीतिक दलों को तो नहीं हैं।
पिछले साल की  ही तो बात है। ऑक्सीजन के बिना न जाने कितनी जिंदगियां असमय ही काल कवलित हुई। अपने-पराये की तो  बात ही दूर। अपने-परिवारी जन-खास रिश्तेदारों के बीच ऐसी दूरियां बढ़ी कि श्मशान तक जाने के लिए कंधों की  कमी पड़ गई। इस मुश्किल घड़ी में जिस समर्पण और अनुसंधान के बाद  हमारे वैज्ञानिकों ने 'वैक्सीन' की खोज किया, उसे भी किसी पार्टी से सम्बंधित बताकर एक तरह से मखौल उड़ाने की कोशिश  हुई।
अब कहा जा रहा है कि एक दल विशेष की सभाओं में उमड़ रहीं भीड़ से घबराकर  सत्ताधरी दल चुनाव टलवाने के फिराक में है। ऐसे में यहीं कहा जा सकता है कि-चर्चे हमेशा कामयाबी के हों/ यह जरूरी तो नहीं/ दुश्वारियां भी अपने वक्त को  मशहूर किया करती है।.....
सवाल है क्या आज हम सचमुच इस दौर से नहीं गुज़र रहें हैं?
क्या चुनावी दल आगामी चुनावों के लिए डिजिटल रैलियां आयोजित करने पर राजी होंगे?
दुनिया में आज लोकतंत्र को सबसे बेहतर  शासन प्रणाली मानी  जाता है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा शासन कहा है। जॉर्ज  बर्नार्ड शां भी कहते हैं कि-लोकतंत्र एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसका लक्ष्य अधिक से अधिक लोगों का कल्याण करना है।
लेकिन इधर आज साफ दिख रहा है कि हमारे यहां लोकतंत्र व्यापक जन कल्याण से इतर भी  कुछ है। जहां सत्ता हासिल करने की जल्दबाजी में जिंदगियों को  बर्बाद करने में हमें कतई गुरेज नहीं है। वैसे भी दुनिया की निगाह में भारत का लोकतंत्र महज चुनावी तंत्र में तब्दील होकर रह गया है।
अमेरिकी लोकतंत्र के सेहत को लेकर भी अब सवाल उठने लगा है। हाल में 'समिट ऑफ डेमोक्रेसी'  के एक समारोह में एक सौ ग्यारह देशों के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति जॉन बिडेन ने कहा कि" लोकतंत्र कोई हादसा नहीं है। हमें हर पीढ़ी के साथ बदलना होता है। यह हमारे वक्त की सबसे बड़ी चनौती है।"
पिछले 6 जनवरी को जिस तरह डोनल्ड ट्रम्प के समर्थकों ने हार को अस्वीकार करते हुए तरह तोड़फोड़ मचाई, उससे दुनिया के कई देशों में अमेरिकी लोकतंत्र की सेहत को लेकर चिंतित होना बिल्कुल स्वाभाविक है।
सभी दलों को बीते साल के चुनावों से कुछ सबक सीखना होंगे?
इस  गौरवशाली लोकतंत्र के बदौलत ही अमेरिकी दूसरे देशों को मानवाधिकार और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाता रहा है। 'वॉशिंगटन पोस्ट' अखबार और 'मेरीलैंड यूनिवर्सिटी 'के  एक हालिया सर्वे में यह तथ्य उजागर हुआ है कि-अपने लोकतंत्र प्रति अमेरिकियों में जो गौरव भाव सन् 2002 में 90% था, उसके मुकाबले  अब गिरकर  54% रह गया है। फिर कोरोना काल में ही अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड के साथ बरती गई पुलिसिया जुल्म को भी दुनिया ने देखा ही है। अपने देश में लॉक डाउन के दौरान उस औरत की तस्वीर भी लोगों के जेहन में अभी जिंदा ही है- जब आने-जाने पर पाबंदी लगा दी गयी। जहाज-ट्रेन- बस के पहिये थम गए।
एक महिला कैसे जान बचाने की गरज से एक बच्चे को गोद में उठाये, दूसरे बच्चे को पहियेदार अटैची पर लिटाये अपने गांव की ओर चल पड़ी। शहरों से गांव पहुंचे कामगार-मजदूर भी अपनों के बीच कितने बेगाने हो गए थे? ये सब घटनाएं हमारी  स्मृतियों में ताजी हैं। फिर भी हम सबक लेने को तैयार नहीं। शायद ऐसे ही वक्त को याद करते हुए "मुक्तिबोध के मेहतर"  शीर्षक कविता में कवि पराग पावन हमें आगाह करते है कि-
कत्लेआम के इस मुल्के- ए- मंजर में खबर रहें/
लोगों को /कि हम दरकेंगे/चिटकेंगे/ टूटेंगे/ बिखरेंगे/
मिट्टी में  मिट्टी बनकर एक दिन हमेशा गायब हो जाएंगे।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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