कांगड़ा-नूरपुर का योगदान

भारत की स्वतंत्रता का संग्राम सन् 1857 की क्रांति से जाना जाता है, लेकिन 23 जून 1757 प्लासी के युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू हो चुकी थी

Update: 2022-08-14 19:00 GMT
By: divyahimachal 
भारत की स्वतंत्रता का संग्राम सन् 1857 की क्रांति से जाना जाता है, लेकिन 23 जून 1757 प्लासी के युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू हो चुकी थी। आंकड़ों के अनुसार सन् 1770 से लेकर सन् 1857 तक ब्रिटिश राज के दमनकारी और अन्याय पूर्ण शासन के खिलाफ असंतोष के कारण उनके खिलाफ 235 क्रांतिकारी आंदोलन हो चुके थे। सन् 1846 के अंत तक अंग्रेजों ने शिमला के पहाड़ी क्षेत्रों का अधिग्रहण कर लिया था। अंग्रेज कांगड़ा को ट्राफी के रूप में अपने पास रखना चाहते थे। उस समय कांगड़ा के महाराजा रणवीर चंद कटोच (शूरवीर, कला प्रेमी, रणनीतिकार महाराजा संसार चंद कटोच के पौत्र) अंग्रेजों की दमनकारी रणनीति को समझ चुके थे और इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया था। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण कि सन् 1847 में उनका देहांत हो गया।
उसके बाद उनके छोटे भाई महाराजा प्रमोद चंद कटोच राज गद्दी पर बैठे। उन्होंने भी अंग्रेजों के खिलाफ अपना विद्रोह जारी रखा। उन्होंने पठानकोट से शुरुआत कर सभी सिक्खों और हिंदू राजाओं को एकजुट करके अंग्रेजों पर हमले की योजना बनाई जिनमें सिख राजा, जसवान, दातारपुर, नूरपुर और बदायूं के कई राजाओं ने उनके नेतृत्व में एकजुट होकर लड़ाई लड़ी। इसी तरह नूरपुर के राजा वीर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे जसवंत सिंह राज गद्दी पर बैठे। ब्रिटिश सरकार ने जसवंत सिंह के सारे अधिकार 5000 रुपए में ले लिए और रियासत को अपने शासन में मिलाने की घोषणा कर दी जो रियासत के मंत्री के बेटे राम सिंह पठानिया को मंजूर नहीं था। उन्होंने कटोच राजा से मिलकर सेना को मजबूत किया और अंग्रेजों पर धावा बोल दिया। इस आक्रमण से अंग्रेज भाग खड़े हुए और रामसिंह पठानिया ने 15 अगस्त 1846 को अपनी रियासत का केसरिया ध्वज लहरा दिय। इससे खुश होकर महाराजा जसवंत सिंह ने खुद को राजा नियुक्त करते हुए राम सिंह पठानिया को अपना मंत्री घोषित कर दिया। इस तरह कांगड़ा तथा नूरपुर रियासतों ने अंग्रेजों के खिलाफ डटकर लड़ाई लड़ी।

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