समृद्धि में संस्कृति का योगदान

उसमें मूल्यवर्धन कर उसे बहुत अच्छे तरीके से प्रोत्साहित किया है, इसीलिए अमेरिका और ब्राजील जैसे देशों के सकल घरेलू उत्पाद में सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योग का बहुत अच्छा योगदान है।

Update: 2022-10-07 05:15 GMT

प्रहलाद सबनानी; उसमें मूल्यवर्धन कर उसे बहुत अच्छे तरीके से प्रोत्साहित किया है, इसीलिए अमेरिका और ब्राजील जैसे देशों के सकल घरेलू उत्पाद में सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योग का बहुत अच्छा योगदान है। भारत में अभी तक संस्कृति की अर्थव्यवस्था पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। हमारे देश में विभिन्न कलाओं का ज्ञान अमूर्त रूप में तो उपलब्ध है, पर उन्हें विकसित कर मूर्त रूप प्रदान करने और उनसे पूरे विश्व को अवगत कराने की आवश्यकता है।

भारतीय संस्कृति में त्योहारों का विशेष महत्त्व है। ये त्योहार भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी बड़ी खुशखबरी लाते हैं, क्योंकि देश के सभी नागरिक इन त्योहारों के शुभ अवसर पर कुछ न कुछ खरीदारी करते ही हैं। इससे देश की अर्थव्यवस्था को बल मिलता है। आंकड़ों के मुताबिक इन त्योहारों के दौरान देश में एक से लेकर दो लाख करोड़ रुपए के बीच खुदरा व्यापार होता है, जो पूरे वर्ष के दौरान होने वाले खुदरा व्यापार का एक बहुत बढ़ा हिस्सा होता है। त्योहारों के दौरान रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित होते हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी से लेकर ई-कामर्स तक, खुदरा व्यापार से लेकर थोक व्यापार तक, विनिर्माण इकाईयों से लेकर सेवा क्षेत्र तक- विशेष रूप से पर्यटन, होटल और परिवहन आदि, लगभग सभी क्षेत्रों में न केवल व्यापार में अतुलनीय वृद्धि दर्ज होती है, बल्कि रोजगार के नए अवसर भी निर्मित होते हैं।

भारत में पिछले पांच-छह माह से लगातार वस्तु एवं सेवा कर संग्रहण एक लाख चालीस हजार करोड़ रुपए के आसपास बना हुआ है। अक्बतूर में इसके डेढ़ लाख करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर जाने की उम्मीद की जा रही है, क्योंकि दशहरा और दिवाली जैसे त्योहार इस माह में आते हैं।

त्योहारों के मौसम में न केवल टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, कपड़े, सोना, चांदी से निर्मित कीमती आभूषणों की खरीद बढ़ती है, बल्कि दुपहिया और चार पहिया वाहनों के साथ-साथ कई नागरिक नए मकान खरीदना भी शुभ मानते हैं। कुल मिलाकर चारों ओर लगभग सभी क्षेत्रों में उत्साह भरा माहौल रहता है। इन त्योहारों का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्त्व तो बना ही रहता है।

भारत के बारे में अगर यह कहा जाए कि यहां एक तरह से संस्कृति की अर्थव्यवस्था ही चल पड़ी है, तो यह अतिशयोक्ति न होगी। वैसे भी पिछले हजारों सालों से भारत की संस्कृति संपन्न रही है और अगर इसको मूल में रखकर आर्थिक गतिविधियों को आगे बढ़ावा दिया जाएगा, तो यह देश-हित का कार्य होगा। इसलिए भारत की जो अस्मिता, उसकी पहचान है, उसे साथ लेकर आगे बढ़ने में ही देश का भला होगा।

उदाहरण के तौर पर हमारे देश में कुछ बड़े त्योहारों को ही ले लीजिए, ये भी सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। इन्हें कैसे व्यवस्थित किया जा सकता है, ताकि देश के नागरिकों में इन त्योहारों के प्रति उत्साह बढ़े और इन्हें मनाने का पैमाना बढ़ाया जा सके और इन त्योहारों पर विदेशी पर्यटकों को भी देश में आकर्षित किया जा सके, इसके बारे में आज विचार किए जाने की आवश्यकता है।

भारत की सांस्कृतिक विविधिता और संपन्नता को सबसे आगे लाकर हम भारत को एक सांस्कृतिक महाशक्ति के रूप में परिवर्तित कर सकते हैं। यह हमारा उद्देश्य और आकांक्षा होनी चाहिए। भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं में मुख्य रूप से शामिल हैं- खाद्य संस्कृति, संगीत, नृत्य, ललित कला, सिनेमा, सांस्कृतिक पर्यटन और धार्मिक पर्यटन, आदि। इन सभी पहलुओं को विभिन्न त्योहारों के दौरान प्रोत्साहित किए जाने की आज महती आवश्यकता है। भारत में खाद्य संस्कृति अपने आप में एक विस्तृत क्षेत्र है।

हर देश की अपनी खाद्य संस्कृति होती है। भारत तो इस मामले में पूरे विश्व में सबसे धनी देश है। हमारे यहां पुरातन काल से देश के हर भाग की, हर प्रदेश की, हर गांव की, हर जाति की अपनी-अपनी खाद्य संस्कृति है, इसको हम पूरे विश्व में प्रोत्साहित कर सकते हैं। त्योहारों के दौरान तो भारत में खाद्य संस्कृति अपने पूरे उफान पर रहती है, और इसके विभिन्न पहलुओं के साथ त्योहारों के दौरान प्रोत्साहित किया जा सकता है।

किसी समाज का अगर अपनी संस्कृति के प्रति रुझान नहीं है, तो उस समाज की संस्कृति का स्तर नीचे गिरता जाता है। यही स्थिति देश की संस्कृति पर भी लागू होती है। भारत में एक समय में नृत्य कला इतनी संपन्न थी कि लगभग सभी राजे-रजवाड़ों और सामाजिक-धार्मिक समारोह में नृत्य के बिना कार्य प्रारंभ और संपन्न ही नहीं होता था। पर, आज यह कला काफी सिकुड़ गई है।

संगीत, नृत्य, काव्य, साहित्य मिलकर देश की विभिन्न कलाओं को मूर्त रूप देते हैं। संस्कृति के अमूर्त रूप को जब तक मूर्त रूप नहीं दिया जाता, तब तक आर्थिक पक्ष इसके साथ नहीं जुड़ पाता। कला के क्षेत्र में भारत में बहुत ही सूक्ष्म ज्ञान उपलब्ध है। इस प्रकार के ज्ञान को मूर्त रूप देने की जरूरत है। आज लोक नृत्य करने वालों की देश में कोई पूछ नहीं है।

लोक नृत्य की कई विधाएं तो समाप्सत हो चुकी हैं। इस प्रकार हम अपनी कलाओं को भूलते जा रहे हैं। देश में बुनकर आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। इनकी कला को जीवित रखने के लिए जुलाहों को आगे बढ़ाने की जरूरत है। इस प्रकार की कला को आगे बढ़ाने के लिए न केवल देश में विभिन्न स्तरों पर सरकारों को, बल्कि निगमित सामाजिक जवाबदेही के अंतर्गत विभिन्न कंपनियों और समाज को भी आगे आने की आवश्यकता है।

विश्व के कई देश अपनी सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था का आकलन कर चुके हैं और लगातार इस ओर पूरा ध्यान दे रहे हैं। दुनिया के अलग-अलग देशों में इस उद्योग को आंकने के पैमाने उपलब्ध हैं। भारत में अभी इस क्षेत्र में ज्यादा काम नहीं हुआ है, क्योंकि हमारी विरासत बहुत बड़ी है और बहुत बड़े क्षेत्र में फैली हुई है। दुनिया भर में इसे सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योग का नाम दिया गया है।

यूनेस्को भी सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योग को वैज्ञानिक तरीके से आंकने का प्रयास कर रहा है और उसके एक आकलन के अनुसार, विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में चार प्रतिशत हिस्सा सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योग से आता है। अमेरिका जैसे देशों की जीडीपी में तो सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योग का योगदान बहुत अधिक है।

एक आकलन के अनुसार, दुनिया भर में सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योग एशिया पैसिफिक, उत्तरी अमेरिका, यूरोप और भारत में विकसित अवस्था में पाया गया है। इस उद्योग में विश्व की एक प्रतिशत आबादी को रोजगार उपलब्ध हो रहा है। भारत में चूंकि इसके आर्थिक पहलू का मूल्यांकन नहीं किया जा सका है, इसलिए देश में इस उद्योग में उपलब्ध रोजगार और देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान संबंधी पुख़्ता आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।

विकसित देशों ने अपनी संस्कृति की अर्थव्यवस्था को मूर्त रूप देने में काफी कामयाबी हासिल की है। उसमें मूल्यवर्धन कर उसे बहुत अच्छे तरीके से प्रोत्साहित किया है, इसीलिए अमेरिका और ब्राजील जैसे देशों के सकल घरेलू उत्पाद में सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योग का बहुत अच्छा योगदान है। भारत में अभी तक संस्कृति की अर्थव्यवस्था पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है।

हमारे देश में विभिन्न कलाओं का ज्ञान अमूर्त रूप में तो उपलब्ध है, पर उन्हें विकसित कर मूर्त रूप प्रदान करने और उनसे पूरे विश्व को अवगत कराने की आवश्यकता है, ताकि विश्व का भारत के प्रति आकर्षण बढ़े। आज के डिजिटल युग में तो यह बहुत आसानी से किया जा सकता है। कला के अमूर्त रूप को अगर हम डिजिटल जगत में ले जाकर स्थापित कर सकें तो इसे विश्व में मूर्त रूप दिया जा सकता है।

इस महान कार्य में देश में लगातार प्रगति कर रहे स्टार्ट-अप उद्योग की भी मदद ली जा सकती है। साथ ही, भारतीय संस्कृति के उपरोक्त वर्णित विभिन्न पहलुओं को देश में मनाए जा रहे त्योहारों के दौरान प्रोत्साहित किए जाने की विशेष जरूरत है, क्योंकि इस दौरान देश के नागरिकों में काफी उत्साह होता है।

 

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