गत दिवस बारिश ने उत्तराखंड के जंगलों की आग बुझा दी, लेकिन गर्मी का मौसम होने के नाते आग का खतरा बरकरार है। ज्ञात हो कि जंगल की आग मात्र वनों के वृक्षों को ही नहीं लीलती, बल्कि उससे तमाम तरह के जीवन भी संकट में पड़ जाते हैं। बात मात्र पशु-पक्षियों एवं अन्य वन्य जीवों की ही नहीं है, बल्कि इसमें मिट्टी के कई जीवाणु एवं कीट भी हैं, जिनका पारिस्थितिकी तंत्र में एक बहुत बड़ा योगदान है। ये जीवाणु-कीट वनों के पारिस्थितिकी तंत्र को बेहतर बनाकर रखते हैं। वनों की आग का जल संरक्षण पर भी कुप्रभाव पड़ता है। वायु प्रदूषण एवं वनों के सीधे नुकसान से अलग तरह की क्षति होती है। इस वर्ष शीतकालीन वर्षा नहीं हुई और अब के मार्च में तापक्रम भी औसतन बढ़ा हुआ था। इसका सीधा असर वनाग्नि पर पड़ा। इसके अलावा जब कभी अप्रत्याशित तापक्रम बढ़ता है, उस समय वृक्ष अपने पानी को बचाने के लिए अपनी पत्तियों को ज्यादा छोड़ देते हैं, ताकि उनसे वाष्पोत्सर्जन न हो सके। ज्यादा मात्रा में गिरी पत्तियां फिर बड़ी आग का कारण बनती हैं।
यह भी ध्यान रहे कि जलवायु परिवर्तन की दुनिया ने वनों के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बिखेर दिया है, जिसका बड़ा असर हिमालय में ही पड़ता है। जंगल की आग के बढऩे और न बुझ पाने के पीछे कई अन्य कारण भी हैं, जिनमें समाप्त होती गांव-समाज की भागीदारी है। इसके लिए 1988 की वन नीति काफी हद तक दोषी मानी जा सकती है। 1988 से पहले जब कभी आग लगती थी तो सामूहिक रूप से पूरा गांव आग को बुझाने में एक बड़ा योगदान करता था, जो आज लगभग शून्य हो चुका है। आज गांव जलते-मरते वनों को अपने सामने देखते रहते हैं। जब तक वह जलता वन गांव को ही न लपेटने वाला न हो, तब तक गांव इसकी सुध नहीं लेते। वास्तव में 1988 की वन नीति ने ही उस रिश्ते पर चोट की है, जो वन और जन के बीच था।
जो वन नीति वनों की गुणवत्ता और क्षेत्रफल को न बढ़ा सके, जो वनाग्नि से न निपट सके और वन महकमा जिसके आगे घुटने टेक देता हो, उस पर सवाल उठना स्वाभाविक है। देश में वनों के क्षेत्रफल का प्रतिशत लगभग 21-22 के बीच डोलता रहता है। उसमें भी प्राकृतिक कितने हैं, इसका ज्यादा पता नहीं। 1988 की वन नीति के अनुसार हर राज्य में 33 प्रतिशत हिस्सा वनाच्छादित होना चाहिए, पर आज पहाड़ों को छोड़कर कोई मैदानी क्षेत्र ऐसा नहीं, जहां वनों का प्रतिशत नीति के अनुसार हो। उत्तर प्रदेश में पांच-छह प्रतिशत, बिहार में सात प्रतिशत, बंगाल में 13 प्रतिशत वन हैं। अन्य राज्यों में भी ऐसे ही हाल हैं। पंजाब और हरियाणा तो वनों को लेकर सबसे पिछड़े हैं। इन सबके अलावा उत्तराखंड ही एक ऐसा राज्य है, जहां 12 हजार वन पंचायतें हैं, लेकिन वनों को बचाने में इन वन पंचायतों का योगदान अभी नाम मात्र का है। दरअसल मौजूदा वन नीति में वन संरक्षण एवं वनाग्नि को रोकने में इन वन पंचायतों की भूमिका का कोई जिक्र ही नहीं है।
हालांकि सरकार ने वन पंचायतों को जोडऩे की कोशिश की, लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो सकी। इसमें दो राय नहीं कि हर तरह के वनों को संभालने में, वनाग्नि से लडऩे में वन पंचायतें एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। अगर वन पंचायतों को वनों के संरक्षण का दायित्व एक बेहतर प्रलोभन के साथ दे दिया जाए तो संभव है कि इस तरह की वनाग्नि की घटनाएं आगे नहीं बढ़ पाएं। वनों में हर वर्ष लगने वाली आग की घटनाएं राष्ट्रीय चिंता का विषय होनी चाहिए, क्योंकि यह मात्र उत्तराखंड या हिमालय के वनों का सवाल नहीं, समूचे देश का है। केंद्र सरकार को इस तरह की घटनाओं को रोकने की पहल करनी चाहिए। यह संभव नहीं है कि एक फॉरेस्ट गार्ड चार सौ हेक्टेयर वन में वनाग्नि की समस्या को दूर करे। इन तमाम पहलुओं को देखते हुए आज 1998 की वन नीति की प्रासंगिकता पर चर्चा की जानी चाहिए, ताकि आने वाले समय में इस पृथ्वी के सबसे महत्वपूर्ण संसाधन यानी वनों को बचाया जा सके। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हवा, पानी, मिट्टी और जीवन इन्हीं वनों से जुड़ा हुआ है। इनके खाक होने का मतलब अपने भविष्य को ही आग में झोंक देना है।