संवैधानिक राष्ट्रवाद की डोर पकड़ कर देश में फिर से नंबर वन बनना चाहती है कांग्रेस?
सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ेगी कांग्रेस
राजनीतिक दलों में वैचारिक फेरबदल होता रहता है. सब राजनीतिक दल वक़्त के हिसाब से अपनी-अपनी विचारधारा को आगे पीछे करते रहते हैं. कांग्रेस ने एक बार फिर 2019 के बाद अपने आप को नए रूप में पेश करने की कोशिश की है. 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी जनेऊधारी ब्राह्मण बन गए थे. हर दूसरे दिन मंदिर जाते दिख रहे थे. ये सिलसिला लोक सभा चुनाव तक चला लेकिन लोगों को राहुल गाँधी की ये नयी छवि भायी नहीं. प्रियंका गाँधी का भी मंदिर जाना होता रहा, लेकिन इंदिरा गाँधी की तरह जनता के द्वारा उसको स्वीकार नहीं किया गया.
आपातकाल के वक़्त इंदिरा गाँधी ने देश के संविधान में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्दों को संविधान का हिस्सा बना दिया था. ये वो दो शब्द थे जिस पर कोंस्टीटूएंट असेंबली में भी सहमति नहीं बन पाई थी. इंदिरा गाँधी ने यह सब बिना किसी से चर्चा के किया था. लेकिन 1980 में इंदिरा गाँधी ने नया रूप धारण किया और वो मंदिरों में जाती दिखने लगीं. ये उनका यूटर्न था. धर्मनिरपेक्ष राजनीति की पैरोकार होने के बावजूद इंदिरा को कोई हिन्दू विरोधी नहीं कह पाया था.
सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ेगी कांग्रेस
अगर आप असम में कांग्रेस का घोषणापत्र पढ़ें तो साफ़ होता है कि कांग्रेस लौट कर संवैधानिक राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ रही है. बहुत दिनों बाद कांग्रेस ने खुल कर हिन्दू राष्ट्र के खिलाफ बोला है. चुनाव में साम्प्रदायिकता को एक बड़ा मुद्दा बनाया गया है. ये भी पहली बार नहीं हो रहा है, 1952 में हुए देश के पहले चुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस का कैंपेन सांप्रदायिक ताक़तों के खिलाफ किया था. कांग्रेस ने ये चुनाव साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ा था. कई लोगों ने इसको कांग्रेस का नया लेफ्ट टर्न बोला है, लेकिन ये फैसला ठीक है चाहे उसे किसी भी तरह की उपमा दी जाये. चाहे ये राहुल गाँधी के चलते हुआ हो या विचार विमर्श का नतीजा, लेकिन सच बात यह है कि इंदिरा गाँधी की तरह लोगों ने राहुल गाँधी को उनके नए तिलकधारी अवतार में स्वीकार किया है.
अटल बिहारी वाजपेयी ने भी किया था ऐसा प्रयोग
इस में कांग्रेस अपवाद नहीं है, एक ऐसा ही एक प्रयोग अटल बिहारी वाजपेयी ने 1980 में किया था. जन संघ के बाद बीजेपी की स्थापना की गयी थी और उसको संघ की विचारधारा से अलग किया गया था. बीजेपी ने पहली बार गांधियन सोशलिज्म शब्द का इस्तेमाल किया था. लेकिन इस अवतार को न तो संघ ने और ना पुराने जन संघ से जुड़े लोगों ने स्वीकार किया था. बीजेपी की हालत इतनी पतली हो गयी थी कि वाजपेयी की जगह बीजेपी का अध्यक्ष लाल कृष्ण अडवाणी को बनाया गया और एक बार फिर बीजेपी और संघ में बेहतर तालमेल स्थापित किया गया. इतना ही नहीं, 1980 में संघ द्वारा चलाये जा रहे रामजन्मभूमि के अभियान को बीजेपी ने अपने ऐजेंडे में शामिल किया और रथ यात्रा निकाल दी.
कांग्रेस का यूटर्न उसके लिए अच्छा है?
कांग्रेस में ये बदलाव 2014 के बाद आया है, पहली बार घोषणापत्र से पता लगता है कि वैचारिक रूप से कांग्रेस कहाँ खड़ी है. इतना ही नहीं, घोषणा पत्र में समाजवाद शब्द का भी इस्तेमाल किया गया है. कांग्रेस पर आरोप लगाया जा सकता है की ये यूटर्न है पर ये यू टर्न अच्छा है, क्योंकि कम से कम विचारधारा को लेकर वैचारिक असमंजस खत्म होता नजर आ रहा है. कांग्रेस को अगर संघ के सामने खड़ा होना होगा तो वो उसकी बी टीम बन कर नहीं खड़ी हो सकती है.
कांग्रेस को बीजेपी के साथ संघ को भी आड़े हाथ लेना होगा, क्योंकि संघ भी खुलकर सामने आ गया है. वो अब ये नहीं कह सकता कि वो केवल एक सांस्कृतिक संगठन है. वो प्रत्यक्ष रूप से एक राजनीतिक संगठन के रूप में सामने खड़ा है. उसकी प्राथमिकताओं को बीजेपी सरकार भी क्रियान्वित कर रही है.
जितनी भी क्षेत्रीय पार्टियां हैं वो विचारधारा को लेकर काफी लचीली रहती हैं. इसलिए कांग्रेस का विचारधारा को लेकर खुल कर सामने आना देश के लोकतंत्र के लिए अच्छा है. लेकिन यहाँ बस एक चीज का ध्यान रखना होगा और वो ये है कि धर्मनिरपेक्षिता का मतलब हिन्दू अस्मिता का उपहास बनाना या उसके राजनीतिक और सामाजिक उपेक्षा की नहीं हो सकती.