अपनों की बनाई दूरियों का बोझ ढोती कांग्रेस

Update: 2022-10-03 18:12 GMT
by Lagatar News
Nishikant Thakur
सन् 1885 में एक विदेशी, यानी स्कॉटलैंड निवासी ए.ओ. ह्यूम के साथ दादाभाई नौरोजी, दिनशा वाचा और कुछ अन्य भारतीय धुरंधर राजनीतिज्ञों के सामूहिक प्रयास से बनाई गई कांग्रेस अशोक गहलोत जैसे नेताओं की बंदरघुड़की से पार्टी नेतृत्व में हड़कंप मच जाएगा, ऐसा जो सोचने लगे हैं उन्हें इस दल के इतिहास को गंभीरता से समझने की जरूरत है. दरअसल, इस दल का अब तक 65 बार विघटन हो चुका है. जब राजनीतिक बिरादरी में यह बात गहरे घर करने लगी थी कि कांग्रेस अब नष्ट हो गई है, इस दल के नेतृत्व ने फिर से देश में एक शक्तिशाली सरकार का गठन किया. रही फिलहाल अशोक गहलोत की बात तो उनके लिए जयपुर के वरिष्ठ पत्रकार प्रतुल सिन्हा ने लिखा है- जनवरी 1990 में कड़कती सर्दी में मुख्यमंत्री हरदेव जोशी ने चंद्र राज सिंघवी को एक छोटे और अनाम हाउसिंग फाइनेंस कॉरपोरेशन का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. यह बात प्रदेश अध्यक्ष अशोक गहलोत को नागवार गुजरी. उन्होंने अपने समर्थकों के इस्तीफे की झड़ी लगा दी. बगावत के नेता बने तत्कालीन गृहमंत्री गुलाब सिंह शक्तावत. जैसा गहलोत ने कहा, वैसा उन्होंने किया. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी विदेश में थे.लौटते ही पेशी हुई और उम्रदराज शक्तावत की क्लास लग गई. गहलोत ने पल्ला झाड़ लिया. शक्तावत ने रोते हुए बताया- (जातिसूचक नाम के साथ) 'मरवा दिया.' आगे जो कहा, लिखना संभव नहीं. इतिहास ने फिर करवट बदली. शक्तावत बन गए धारीवाल. शक्तावत नहीं रहे. गहलोत फिर बेदाग निकल जाएंगे.
किसी दूसरी पार्टी में अध्यक्ष की नियुक्ति केवल हाईकमान की इच्छा के आधार पर होती है, लेकिन कांग्रेस में अध्यक्ष वही बनते हैं जो उनके आंतरिक संवैधानिक चुनाव जीतकर आते हैं. इसलिए छोटे-छोटे दलों का उदय और अंत होता रहता है, लेकिन कांग्रेस ने देश की जनता के मन में एक ऐसा स्थायी विश्वास बना लिया है. जो यह सोचता है कि यह एक विश्वसनीय पार्टी है, जो देश के लिए कुछ भी कर सकती है. यही तो पिछले कुछ वर्षो में देश में हुआ, जब सत्तारूढ़ दल ने कुत्सित प्रचार के बल पर अपने को इस प्रकार स्थापित कर लिया कि लोगों के मन में यह बात बैठ गई कि आजादी के बाद या आजादी के लिए कांग्रेस ने कुछ किया ही नहीं. जबकि, सच तो यही है कि आजादी काल में आज के सत्तारूढ़ दल का कोई योगदान रहा ही नहीं. सत्तारूढ़ का कोई कितना ही गाल बजा ले, सभी जानते हैं कि किसने निःस्वार्थ भाव से अपने आप को देश के लिए समर्पित किया.
अब वर्तमान में कांग्रेस में कलह की जो स्थिति बन आई है, उसके क्या कारण हैं, इसे जानने का प्रयास करते हैं. राजस्थान कांग्रेस के सबसे मुखर और अशोक गहलोत के सबसे खास ने खुलकर पार्टी हाईकमान पर आरोप लगाया है कि गहलोत के खिलाफ यह षड्यंत्र है. पार्टी ने पहले पंजाब खोया, अब राजस्थान भी हाथ से जाएगा. आलाकमान से उन्होंने पूछा है कि गहलोत के पास अभी कौन से दो पद हैं और यह किस पद से त्यागपत्र मांग रहे हैं. वहीं, कांग्रेस विधायक गिर्राज मलिंगा ने अपनी ही सरकार को अल्पमत में बताते हुए कहा है कि विधायकों के इस्तीफे स्वीकार होना चाहिए, जिससे पता चल जाएगा कि किसमें कितना दम है. मलिंगा ने यहां तक मांग की है कि अब मध्यावधि चुनाव होने चाहिए. वहीं, राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने कहा है कि वहां कांग्रेस विधायकों का इस्तीफा पार्टी का अंदरूनी मामला है. जब मेरे पास आएगा, तब देखा जाएगा कि इसका समाधान क्या हो सकता है. अभी सत्तारूढ़ कांग्रेस इस गतिरोध से उबरने का प्रयास कर रही है. भविष्य में मेरे हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ेगी तो उचित वैधानिक निदान किया जाएगा. यह भी कहा जा रहा है कि अशोक गहलोत ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राजस्थान के पर्यवेक्षक मल्लिकार्जुन खड़गे से फोन पर बात करके माफी मांग ली है, लेकिन सच क्या है, यह तो पर्यवेक्षक मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन द्वारा हाईकमान को सौंपी रिपोर्ट के सार्वैजनिक होने के बाद ही पता चल पाएगा. मुख्यमंत्री अशोक गहलौत दिल्ली में कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर पिछले दिनों जयपुर की घटना के लिए खेद भी प्रकट किया है और माफी भी मांगी है और साथ ही अध्यक्ष पद का चुनाव भी नहीं लड़ने की घोषणा कर दी है, लेकिन वही बात अब पछताए क्या होय जब…
सोनिया गांधी जिसपर आंख मूंदकर भरोसा करती रही हैं, क्या उसी ने साजिश रचकर सबसे बड़ा धोखा दिया? ऐसा क्या हो गया कि 24 घंटे के अंदर राजस्थान कांग्रेस में भगदड़ मच गई. बता दें कि राहुल गांधी 'भारत जोड़ो यात्रा' पर हैं और इसी बीच ऐसा क्या हो गया? पार्टी के अंदर तो सब कुछ ठीक चल रहा था. हाईकमान ने अपने सबसे विश्वासपात्र को राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करके भारतीय जनता पार्टी के इस आरोप को काटने का प्रयास कर रही थी, जिसमें उसका एक अदना-सा नेता द्वारा भी कहा जाता है कि कांग्रेस में परिवारवाद ही सबसे शक्तिशाली हाईकमान है. इसी आरोप को काटने के उद्देश्य से पार्टी ने अपने उदयपुर शिविर में निर्णय लिया था कि एक व्यक्ति एक पद पर ही रहेगा और इसी के आधार पर अपने पुराने संविधान के तहत राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद स्वीकार करने से साफ मना कर दिया और अपने परिवार के सबसे विश्वस्त के हाथ पार्टी की कमान सौंप देने का फैसला किया, लेकिन यह क्या? जिसे पार्टी का सर्वोच्च पद देने का निर्णय लिया, वह अपने गृह राज्य के अपने प्रेम को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं, इसलिए कि उनकी अनुपस्थिति में उनके उत्तराधिकारी के रूप में जिन्हें पार्टी द्वारा मुख्यमंत्री बनाए जाने की चर्चा है, उनसे उनकी बेहतर तालमेल नहीं है और इसलिए सचिन पायलट उनके खिलाफ षड्यंत्र रचेंगे! राष्ट्रीय फलक की जिम्मेदारी को छोड़कर एक राज्य तक सिमट जाना किसी भी प्रकार पार्टी हित में नहीं है और इसलिए जो हश्र अन्य राज्यों में कांग्रेस विधायकों की हुई, वही स्थिति अब राजस्थान में केवल एक व्यक्ति के कुर्सी मोह के कारण हो सकता है. निश्चित रूप से इसका लाभ केंद्रीय सत्तारूढ़ दल भाजपा सत्ता परिवर्तित करके उठाएगा और जैसा अभी तक हॉर्स ट्रेडिंग के माध्यम से होता आया हैं, लगता है वही हाल राजस्थान में भी कांग्रेस का होने वाला है. आखिरकार हो सकता है कि यह कांग्रेस के अंदरूनी कलह के परिणामस्वरूप किसी षड्यंत्र के तहत हो रहा हो, लेकिन यह गहन विवेचना का विषय है.
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, जिन्हें अपने वफादार विधायकों के विद्रोह के लिए कई कांग्रेस नेताओं द्वारा दोषी ठहराया गया था, को पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी को सौंपी गई रिपोर्ट में दोषमुक्त कर दिया गया है. रविवार को हुए ड्रामे के लिए जयपुर में मौजूद प्रदेश प्रभारी अजय माकन ने तीन विधायकों के खिलाफ कार्रवाई की सलाह दी है. सूची में मुख्य सचेतक महेश जोशी, आरटीडीसी के अध्यक्ष धर्मेंद्र राठौर और शांति धारीवाल शामिल हैं, जिन्होंने विधायकों की समानांतर बैठक की मेजबानी की और अगले मुख्यमंत्री पर प्रस्ताव पारित किया. पार्टी ने अब राजस्थान के तीन नेताओं को 'गंभीर अनुशासनहीनता का कार्य' के लिए कारण बताओ नोटिस दिया है और 10 दिन में जवाब मांगा है.
जो स्थिति बन गई है उससे वर्ष 1990 की बात भी याद आ जाती है जब चंद्र राज सिंघवी को एक छोटे हाउसिंग फाइनेंस कॉर्पोरेशन का अध्यक्ष तत्कालीन मुख्यमंत्री हरदेव जोशी ने बनाया था उस समय प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अशोक गहलोत ने अपने समर्थकों से त्यागपत्र की झड़ी लगवा दी थी और जब क्लास लगी तो उन्होंने अपना पल्ला झाड़ लिया था जैसा कि अभी उन्होंने अपने समर्थकों से सचिन पायलट के खिलाफ विधायकों से विधानसभा अध्यक्ष को त्यागपत्र दिलवाया और दिल्ली से गए पर्यवेक्षक और प्रभारी की बैठक के बजाय एक विधायक के यहां सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने का प्रस्ताव पारित कराया. आश्चर्य तो यह है कि इसके बावजूद अशोक गहलोत का इन सब घटनाओं से पल्ला झाड़ लेना और पार्टी हाईकमान द्वारा उन्हें क्लीन चिट देना उनके कद को ही दर्शाता है. संभवतः हाईकमान इस बात से डर गया कि हो सकता है कि गहलोत के प्रभाव से राजस्थान भी हाथ से न निकल जाए. इसलिए कांग्रेस के लिए बेहतर है कि इतने कद्दावर नेता से किनारा काटने के बजाय आमने-सामने बैठकर मामले को सुलझाए. जो भी हो, अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बनें या न बनें, इतनी बात तो है ही कि उन्हें कम करके न आंका जाए, अन्यथा पुनर्जीवित हो रही कांग्रेस को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है,कुछ भी हो यदि वादा खिलाफी कोई करता है, अनुशासन के विरुद्ध काम करता है तो उसे इसका अहसास तो निश्चित रूप से कराया ही जाना चाहिए चाहे अशोक गहलौत हों या कोई और हो.

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