कृषि नीतियों पर भ्रम खत्म हो

किसान आन्दोलन जैसे-जैसे लम्बा खिंच रहा है वैसे-वैसे ही नये कृषि कानूनों को लेकर भ्रम बढ़ रहा है।

Update: 2020-12-13 05:12 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। किसान आन्दोलन जैसे-जैसे लम्बा खिंच रहा है वैसे-वैसे ही नये कृषि कानूनों को लेकर भ्रम बढ़ रहा है। इसमें सबसे मुख्य विषय यह है कि कृषि उपज की खुली व्यापारिक विपणन प्रणाली से किसानों को क्या लाभ होगा ? इस मामले की पड़ताल करने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कृषि उपज विपणन प्रणाली की समीक्षा करनी होगी। आजादी के बाद देश की कृषि उपज विशेषकर अन्न उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रयास इस तरह किये गये कि किसान का लागत मूल्य कम से कम रह सके और उसकी उपज का मूल्य बाजार में आम आदमी की जेब के दायरे में हो। इसकी वजह यह थी कि देश की उस समय की 80 प्रतिशत से अधिक गरीब जनता की आमदनी बहुत कम थी। इस सन्दर्भ में 1963 में लोकसभा में समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया की इतिहास प्रसिद्ध चर्चा तीन आना बनाम 15 आना को सन्दर्भ में लेते हुए यह सिद्ध किया जा सकता है कि भारत में तब तक गरीबी का आलम क्या था। डा. लोहिया ने केवल यही सिद्ध किया था कि भारत के औसत आदमी की दैनिक आमदनी तीन आना रोज की है जबकि योजना आयोग कह रहा था कि यह आमदनी 15 आने रोज की है। उस समय सार्वजनिक वितरण प्रणाली बहुत कारगर थी जिसके माध्यम से सस्ता अनाज व ईंधन (मिट्टी का तेल) आम जनता को सुलभ कराया जाता था।


देश में समुचित अनाज उत्पादन न होने की वजह से सरकार इसका आयात करती थी और राशन की दुकानों के माध्यम से बांटती थी। किसानों की उपज का विपणन सीधे बाजार में व्यापारी वर्ग करता था और हर उपज का मूल्य उसकी फसल की मिकदार के आधार पर तय करता था, परन्तु आश्चर्यजनक रूप से उत्तर भारत की मुख्य अनाज की फसल का मूल्य व्यापारी सोने के भाव से बांध कर तय करते थे। मोटा फार्मूला यह था कि दस मन गेहूं (एक मन में चालीस सेर होते थे जो बाद में चालीस किलो हो गये और एक सौ किलो का एक क्विंटल हो गया) का मूल्य उस समय के एक तोला सोने के मूल्य के बराबर होना चाहिए। इस हिसाब से आज के चार क्विंटल गेहूं का मूल्य तब एक तोला सोने के मूल्य के बराबर रख कर बाजार भाव तय होता था। मेरे पिता ने एक समय बातचीत के दौरान बताया कि 1962 के करीब जब सोने का भाव भारत में मात्र 86 रु. तोले था तो गेहूं का भाव खुले बाजार में आठ व नौ रु. मन के बीच में था। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद देश में महंगाई थोड़ी बढ़नी शुरू हुई मगर यह काबू से बाहर नहीं हुई लेकिन 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद महंगाई ने रिकार्ड तोड़ छलांग लगानी शुरू की तो सोने के भाव बहुत तेजी से बढे़ और यह दो सौ रु. तोले के करीब पहुंच गया परन्तु इसी वर्ष खाद्यान्न की भारी किल्लत को देखते हुए कृषि मूल्य आयोग की स्थापना हुई और हरित क्रांति का बीज बोया गया। 1966 में इंदिरा सरकार ने गेहूं व चावल समेत कुछ अन्य प्रमुख फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया। तब गेहूं का मूल्य 76 रु. प्रति क्विंटल घोषित किया गया। इस मूल्य के हिसाब से किसान ढाई क्विंटल से कुछ अधिक गेहूं बेच कर एक तोला सोना खरीद सकता था। इस व्यवस्था से किसान की खुशहाली की हल्की शुरूआत हुई और खुले बाजार में उसका अनाज अपेक्षाकृत अधिक मूल्य पर बिकना शुरू हुआ, इसके समानान्तर सरकार ने कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाने पर लगातार जोर जारी रखा जिससे उसकी लागत कम होती गई। समर्थन मूल्य पर किसान से अधिकतम खरीदारी सरकार द्वारा ही की जाती थी, इसके लिए भारतीय खाद्य निगम की स्थापना की गई, परन्तु 1991 में देश में शुरू हुई बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की प्रणाली ने कृषि क्षेत्र में केवल यह बदलाव किया कि इसमें सार्वजनिक निवेश लगातार कम होता गया परन्तु किसानों का उत्पादन वृद्धि की तरफ अग्रसर होता गया। इससे एेसी स्थिति आ गई कि किसानों को अपनी फसल बाजार में कम मूल्य पर बेचने के लिए बाध्य होना पड़ा।

दूसरी तरफ विश्व व्यापार संगठन ने भारत पर कृषि सब्सिडी कम करने का दबाव बना दिया और 2001 में कृषि जन्य उत्पादों के आयात पर लगे परिमाणिक (मिकदार) प्रतिबन्ध भी समाप्त हो गये। इससे विकट स्थिति उत्पन्न हो गई क्योंकि किसानों ने अपनी मेहनत से भारत को ही अन्न निर्यातक देश बना दिया। तब अनाज के भंडारण की समस्या पैदा हो गई। अतः तब की केन्द्र की वाजपेयी सरकार ने संसद में मंडी समिति कानून बना कर किसानों को अपनी उपज इसके माध्यम से न्यूनतम मूल्य पर बेचने की प्रणाली विकसित करने की सोची। राज्य सरकारों ने मंडी समितियों का विकास करके इनमें कृषि उपज विपणन की केन्द्रीय प्रणाली को विकसित किया जिससे किसान सीधे खेत से अपनी उपज लाकर इनमें बेचे और अच्छे दाम पाएं इन मंडियों का सीधा सम्बन्ध खुदरा या फुटकर दुकानदारों से जोड़ा गया जिससे आम जनता में इनकी सप्लाई सुचारू हो सके। इस प्रणाली ने किसान को आर्थिक सुरक्षा का एक ऐसा चक्र प्रदान किया कि उसकी नकद फसलों से लेकर भंडारण करने योग्य फसलों तक का विपणन दिन के दिन चालू बाजार भाव पर हो सके। अतः मंडियों की व्यवस्था पर आंच आने के डर से किसान आज आतंकित हो रहे हैं और आन्दोलन की राह पर चल पड़े हैं। सरकार को उनकी इसी आशंका को समाप्त करना होगा। यह कार्य केवल बातचीत और विचार-विनिमय से ही हो सकता है। खुली बाजार प्रणाली को भी यह देखना होगा कि सोने के वर्तमान भावों से गेहूं व चावल के दाम बन्धे रहें।


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