लाशें छोड़ने की मजबूरी?

कोरोना के कहर ने किस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है को कि मुर्दा आदमियों के लिए अंत्येष्टि तक का

Update: 2021-05-17 16:50 GMT

आदित्य चोपड़ा। कोरोना के कहर ने किस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है हिन्दोस्तान को कि मुर्दा आदमियों के लिए अंत्येष्टि तक का इन्तजाम नहीं हो पा रहा है। पूरा मुल्क पूछ रहा है कि हजारों लोगों की लाशें गंगा नदी के रेत में दबी मिल रही हैं और सैंकड़ों लोगों की लाशें इसके पवित्र जल में तैरती मिल रही हैं उनकी गिनती किस खाते में की जायेगी? उत्तर प्रदेश की 22 करोड़ आबादी इस सूरत से हैरान है, केवल इतना नहीं है बल्कि लोग यह भी पूछ रहे हैं कि राज्य के प्रतिष्ठित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 18 विद्वान प्रोफेसर केवल एक सप्ताह के भीतर ही कोरोना का निवाला बन गये और जिला प्रशासन आक्सीजन गैस के सिलेंडरों का प्रबन्ध ही करने में लगा रहा। मगर बड़ा सवाल यह है कि पूरे देश में कोरोना से मरने वालों की जो संख्या बताई जा रही है या गिनाई जा रही है उसकी हकीकत क्या है? गंगा के तट पर अपने परिजनों के शवों को छोड़ने वाले लोगों की मजबूरी क्या थी? जो रिपोर्टें विभिन्न माध्यमों से कच्चे-पक्के तरीके से आ रही हैं उनके अनुसार ये शव ऐसे गरीब तबके के लोगों के हैं जिनके पास अन्तिम संस्कार के लिए लकड़ी तक खरीदने के पैसे नहीं थे। यदि इन रिपोर्टों में सच्चाई है तो इसकी जवाबदेही सीधे प्रशासन पर जाती है और मामला जवाबदेही से बचने का बनता है। इस जवाबदेही को हम समाज के मत्थे नहीं मढ़ सकते हैं क्योंकि लोकतन्त्र में लोगों की ही सरकार होती है।


दूसरा गंभीर सवाल यह पैदा होता है कि कोरोना का मुकाबला करने के लिए जरूरी सुविधाओं को मुहैया कराने में पूरी तरह असफल रहा प्रशासन इस बीमारी का शिकार हुए लोगों की संख्या को छिपाने का प्रयास कर रहा है। इन मौतों का आंकड़ा तो हमें जन्म-मृत्यु पंजीकरण कार्यलयों से भी नहीं मिल सकता। मगर अकेले उत्तर प्रदेश की ही यह कहानी नहीं है इसके पड़ोसी राज्य बिहार और मध्य प्रदेश में भी हो रहा है और गुजरात ने तो सभी के चेहरे का रंग उड़ा दिया है। इस राज्य के कुछ यशस्वी पत्रकारों ने 1 मार्च से 10 मई तक पूरे राज्य में मरने वालों के आंकड़े पूरे राज्य के जन्म-मरण कार्यालयों से इकट्ठा किये और पाया कि इस दौरान कुल एक लाख 23 हजार मृत्यु प्रमाणपत्र जारी किये गये। जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान केवल 58 हजार मृत्यु प्रमाणपत्र जारी किये गये थे। जबकि राज्य सरकार ने चालू वर्ष की 1 मार्च से 10 मई की अवधि के दौरान कोरोना से मरने वालों की कुल संख्या 4218 बताई। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान अगर इस बीमारी से केवल चार हजार से कुछ अधिक लोग ही मरे हैं तो पिछले वर्ष के इन 71 दिनों में 58 हजार लोगों की मृत्यु को यदि प्रकृतिक भी मान लिया जाये तो इस साल 65 हजार लोग ज्यादा मरे हैं। क्या इन सभी को यह मान लिया जाये कि इनकी मृत्यु कोरोना संक्रमण से नहीं हुई?

आकंड़ों को छिपा कर या इनमें हेर-फेर करके हम शेष बचे लोगों के जीवन से ही खिलवाड़ कर रहे हैं और उन यक्ष प्रश्नों से बचना चाहते हैं जो कोरोना का मुकाबला करने में पैदा हुई नाकामी की वजह से उठ रहे हैं। चुनी हुई सरकारों का पहला कर्त्तव्य होता है कि वे अपने लोगों का सच से सामना बेझिझक होकर करायें जिससे लोग अधिक सावधान होकर अपने जीवन की सुरक्षा कर सकें। पूरी दुनिया जानती है कि इस कोरोना की दूसरी लहर का इस बार सबसे तेज हमला हमारे ग्रामीण क्षेत्रों पर ही हुआ है। इन ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग हर राज्य में (कुछ अपवादों को छोड़ कर) चिकित्सा तन्त्र न केवल बदहवास है बल्कि हमारी 74 साल की सारी वैज्ञानिक तरक्की को हाशिये पर फेंकता है। ग्रामीण स्तर से लेकर ब्लाक स्तर तक पर हमारे पास न डाक्टर हैं और न अस्पताल और अगर हैं भी तो उनकी हालत भैंसों के तबेलों से बेहतर नहीं कही जा सकती। जो गांवों में स्वास्थ्य केन्द्र हैं उन पर अधिसंख्य में ताला पड़ा रहता है और सप्ताह में एक दिन कोई स्वास्थ्य कर्मचारी आकर खानापूर्ति करके चला जाता है। ये केन्द्र कागजों पर किस तरह चलते हैं अगर कोई इसे समझना चाहता है तो बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी गांव का दौरा कर आये।

मध्य प्रदेश व गुजरात और झारखंड व छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों की हालत भी कुछ बेहतर नहीं कही जा सकती। सवाल यह है कि हम बेवकूफ किसका बना रहे हैं क्योंकि ग्रामीण जनता

किसी प्रदेश में पेड़ के नीचे तो कहीं झोपड़ियों के अंधेरे में कोरोना से जूझ रही है। इतना भर होता तो भी ठीक था मगर वे तो इस बीमारी से मरने वाले अपने लोगों के अन्तिम संस्कार तक नहीं कर पा रहे हैं। अतः हर राज्य प्रशासन का यह प्रथम कर्त्तव्य बनता है कि वह

कोरोना से मरने वाले व्यक्तियों के आंकड़ों के साथ किसी प्रकार की हेराफेरी न करे और लोगों को सचेत करे कि यह बीमारी

कितनी भयंकर है जिससे लोग अधिक सचेत होकर कोरोना नियमों का पालन करने को प्रेरित हों।


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