कसौटी पर करुणा
जब हम किसी को यह कहते सुनते हैं कि दया ही दुख का कारण है तो एकबारगी तो लगता है ये कैसी संवेदनहीन बात है। मगर जब अपने आसपास दया, करुणा और संवेदनाओं का खेल देखने में आता है, रोजमर्रा की जिंदगी में तरह-तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ता है, तब लगता है
मोहन वर्मा: जब हम किसी को यह कहते सुनते हैं कि दया ही दुख का कारण है तो एकबारगी तो लगता है ये कैसी संवेदनहीन बात है। मगर जब अपने आसपास दया, करुणा और संवेदनाओं का खेल देखने में आता है, रोजमर्रा की जिंदगी में तरह-तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ता है, तब लगता है कि यह बात उतनी भी गलत नहीं कि दया ही दुख का कारण है। दरअसल, बात एकबारगी तो नकारात्मक नजर आती है, मगर अपने सामाजिक दायित्वों को निभाते कई बार ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ा कि इस मसले पर नए सिरे से सोचने की जरूरत महसूस हुई।
कई बार कोई न कोई दंपति चेहरे पर दर्द ओढ़े यह कहता मिला कि सफर के दौरान उनका सारा सामान कहीं चोरी चला गया है, घर जाने तक के पैसे नहीं हैं। कितने पैसों की जरूरत है, यह पूछने पर बताई गई राशि की व्यवस्था की, ताकि वे अपने घर जा सकें। मगर दुखद आश्चर्य जब हुआ कि कई बार उन्हें इसी तरह शहर के अलग-अलग हिस्सों में यहां-वहां उसी बहाने से पैसे मांगते देखा और लगा कि जब यह कहा जा रहा है कि दया ही दुख का कारण है तो यह शायद उनके अनुभवों पर आधारित होगा। ऐसे में सचमुच के जरूरतमंदों के प्रति भी संदेह की धारणा बनती है।
अपने शहर में एक धार्मिक स्थल ऊंची पहाड़ी टेकरी पर है, जहां शहर के और शहर के बाहर के श्रद्धालु बड़ी संख्या में दर्शनों के लिए आते हैं। उस पहाडी के नीचे कई सक्षम दिख रहे लोग दर्शनार्थियों से मातारानी के नाम पर जिस तरह भीख मांगते हुए उनसे व्यवहार करते है और दयावश वे श्रद्धालु उन्हें राशि देने को मजबूर हो जाते है, तो वह देखकर भी यही लगता है कि दया का सिरा कहां जाता है। वहां उन परिवारों के बच्चे भी बड़ी संख्या में स्कूल जाने के बजाय माथे पर चंदन लगाए और छोटी-छोटी कटोरियों में चंदन जैसा कुछ लिए लोगों को जबरन टीका लगाने की जिद करके पैसे मांगते हैं। लोग दयावश या पीछा छुड़ाने की गरज से उन्हें पैसे देते भी हैं।
यह सब देखकर कई बार लगता है भीख मांगने के धंधे के भरोसे क्यों लोग सही जरूरतमंद का हक मार कर लोगों की भावनाओं का शोषण करते हैं। एक दिन परिवार में पूजा के बाद प्रसाद स्वरूप भोजन की थैली किसी जरूरतमंद को देने निकला तो असहाय से दिखने वाले व्यक्ति ने ले तो लिया, लेकिन साथ ही फरमाईश भी कर दी कि एक बीस का नोट भी उसे दिया जाए। कई बार जब कोई व्यक्ति भूख की दुहाई देकर कुछ मांगता है और उसे कुछ खिलाने के लिए होटल चलने की बात की जाती है तो वह सीधे-सीधे पैसों की मांग करने लगता है। इस तरह के कई लोग नशे के कारोबारियों की चपेट में आकर नशे के लती भी बन जाते हैं।
किसी भी धार्मिक स्थल पर यह देखा जा सकता है कि तरह-तरह की भाव-भंगिमाओं के साथ लाचारी का अभिनय करते खाए-अघाए मांगते लोग आपकी-हमारी भावनाओं का शोषण करके खासकर महिलाओं के इस तरह पीछे पड़ते दिखते हैं कि उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। कई बार ऐसे लोग बदतमीजी करने से भी बाज नहीं आते। पिछले साल अपने साथियों संग जब दिवाली पर साधनहीन परिवारों के बच्चों को खुशियां बांटने निकले तो कई दुखद अनुभवों का सामना करना पड़ा। उपहारों, मिठाइयों और पटाखों पर जिस तरह की छीना-झपटी हुई, उससे खुशियां बांटने की जगह दर्द और परेशानी लेकर लौटना पड़ा है।
मगर यहां एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि गलत तरीके से किसी सच्चे जरूरतमंद का हक मारकर या किसी की संवेदनशीलता का बेजा फायदा उठाकर अगर कोई अपनी चालाकी से कुछ लाभ, पैसा या वस्तु ले भी लेता है तो उसे कहीं न कहीं कभी न कभी, किसी न किसी रूप में उसका भुगतान अवश्य ही करना पड़ेगा। जैसे अच्छाई पलटकर सामने आती है वैसे ही चालाकी का भी समय आने पर चुकाना पड़ता है।
किसी भी जरूरतमंद की मदद करते समय इस बात का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए कि हमारी भावनाओं के अनुरूप सही व्यक्ति के हक पर कोई गलत व्यक्ति डाका तो नहीं डाल रहा। बेशक भावनाओं और भरोसे का शोषण का यह निचला स्तर ही है। देश और दुनिया में ऊंचे पदों पर बैठे अधिकारी, नेता और कारोबारी जिस तरह आम लोगों से अलग-अलग तरह से पर्दे करे पीछे से पैसे वसूलते हैं, कभी सहायता के नाम पर तो कभी अनुदान के नाम पर। यह उच्च स्तरीय लूट होती है, जिसमें संभ्रांत दिखने वाले लोग या तो चुप रह जाते हैं या फिर उसमें शामिल होते हैं। इस तरह भावनाओं के शोषण के कई स्तर हैं, जिसमें वास्तविक जरूरतमंद की पहचान कई बार कठिन हो जाती है।