त्रिपुरा में साम्प्रदायिक हुड़दंग
बांग्लादेश की सीमा से सटे उत्तर पूर्व के छोटे से राज्य त्रिपुरा में पिछले दिनों जो साम्प्रदायिक हिंसा का दौर चला है वह इस प्रदेश के मिजाज और संस्कृति से बिल्कुल मेल नहीं खाता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा: बांग्लादेश की सीमा से सटे उत्तर पूर्व के छोटे से राज्य त्रिपुरा में पिछले दिनों जो साम्प्रदायिक हिंसा का दौर चला है वह इस प्रदेश के मिजाज और संस्कृति से बिल्कुल मेल नहीं खाता है। इस राज्य में आदिवासियों की जो छोटी संख्या है वह इस बात की गवाही देती है कि यह राज्य धर्म या मजहब की सीमाओं से ऊपर मानवता को आदर्श रूप में अपनाता रहा है। इस राज्य में बांग्लाभाषी नागरिकों की भी अच्छी-खासी संख्या है और उनकी बांग्ला संस्कृति भी मजहब की दीवारों से ऊपर इंसानियत के रंग में रंगी हुई है। प्रसिद्ध संगीतकार स्व. सचिनदेव वर्मन के पुरखों की इस रियासत का हर गांव और शहर चीख-चीख कर हिन्दू-मुस्लिम एकता का पैरोकार रहा है और इसके कण-कण में भाईचारा घुला हुआ है परन्तु पिछले दिनों कुछ अतिवादी कट्टरपंथी संगठनों ने जिस प्रकार बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के अवसर पर कुछ हिन्दू मन्दिरों पर हुए हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप यहां मस्जिदों पर हमला किया और मुसलमान नागरिकों की दुकानों आदि का विध्वंस किया उसकी हिमायत कोई भी भारतीय नागरिक नहीं कर सकता। राज्य में कुल जनसंख्या में मुस्लिम नागरिकों की संख्या दस प्रतिशत से भी कम है और वे सैकड़ों साल से इस राज्य की संस्कृति के अनुरूप आचार-व्यवहार करते रहे हैं और हिन्दू नागरिकों के साथ प्रेम व भाईचारे के साथ रहते हैं। जिन लोगों को इस राज्य की राजधानी अगरतला जाने का अवसर मिला है वे अच्छी तरह जानते हैं कि 1947 में भारत बंटवारे के समय इस शहर पर क्या कहर बरपा हुआ था। शहर का बाहरी हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान में चला गया था जो अब बांग्लादेश है और अदरूनी हिस्सा भारत में रह गया था। अगरतला में ही भारत व बांग्लादेश की सीमा है जिस पर खड़े होकर आसानी से बांग्लादेश के बाह्मनवाड़ी कस्बे को देखा जा सकता है। हकीकत यह है कि बाह्मनवाड़ी बांग्लादेश में है और अगरतला शहर की सड़क काजी रोड भारत में है। मगर असली सवाल यह है कि भारत में एेसी साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया को अंजाम देने का काम जिन संगठनों ने किया और अगरतला शहर में साम्प्रदायिक नारेबाजी करके एक धर्म के लोगों के विरुद्ध नफरत फैलाने की कोशिश की है उस पर राज्य की पुलिस ने तुरत-फुरत कार्रवाई क्यों नहीं की ? जबकि हकीकत यह है कि जब बांग्लादेश में हिन्दू मन्दिरों पर हमला किया गया था और इस देश के जमाते इस्लामी जैसे कट्टरपंथी तास्सुबी संगठन की शह पर कुछ हिन्दू नागरिकों का कत्ल तक कर दिया गया था तो बांग्लादेश की प्रधानमन्त्री शेख हसीना वाजेद ने इन घटनाओं का संज्ञान बहुत सख्ती से लिया था और दंगाइयों की गिरफ्तारी करने में देर भी नहीं लगाई थी और पुलिस को एेसे तत्वों से निपटने के सख्त निर्देश भी दिये थे और साथ ही उन्होंने भारत से अपील भी की थी कि इसकी प्रतिक्रिया होने से रोकने के पुख्ता इंतजाम किये जाने चाहिए जिससे दोनों देशों के प्रगाढ़ सम्बन्धों पर कोई असर न पड़ने पाये। पूरे भारत के लोगों ने चौकन्ने होकर आपसी भाईचारा कायम रखा परन्तु त्रिपुरा के अगरतला में सामाप्रदायिक तत्व अपना खेल कर गये। मगर हैरानी इस बात पर हो रही है कि राज्य पुलिस सर्वोच्च न्यायालय के उन चार वकीलों के खिलाफ आतंक विरोधी कानून यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज कर रही है जो इस राज्य में साम्प्रदायिक भाईचारा कायम करने के उद्देश्य से गये थे और नफरत फैलाने वालों के चेहरों से पर्दा उतार रहे थे। पुलिस ने उनके द्वारा एक प्रेस कांफ्रैंस को सम्बोधित करने का भी संज्ञान लिया और उनके कथन को दो समुदायों के बीच द्वेष फैलाने के खाते में डाला। बेशक कुछ एेसी कड़वी बातें हो सकती हैं जिससे कानून-व्यवस्था की स्थिति पर नुक्ताचीनी करने का मुद्दा उठे मगर असली सवाल यह है कि खुलेआम किसी मजहब के मानने वाले लोगों के खिलाफ नारेबाजी करने वालों के िखलाफ भी एेसे ही कठोर कदम क्यों नहीं उठाये गये। संपादकीय :मर जाएगा स्वयं, सर्प को अगर नहीं मारेगादिल्ली को जहर का चैम्बर हमने खुद बनाया हैजहरीली शराब से मौतों पर सवालसिद्धू के कांग्रेस विरोधी 'लच्छन'पेट्रोल-डीजल के दाम में कमीपाक का अमानवीय रवैयाप्रश्न किसी धर्म या मजहब का नहीं है बल्कि उस कानून का है जो हर खतावार को एक ही नजर से देखता है। भारत में न किसी हिन्दू संगठन और न ही किसी मुस्लिम संगठन को एक-दूसरे के खिलाफ नफरत फैलाने की इजाजत संविधान नहीं देता है। सबसे पहले भारत में रहने वाला हर व्यक्ति भारतीय है उसके बाद वह हिन्दू या मुसलमान है। कश्मीर में भी हिन्दुओं का उतना अधिकार है जितना कि त्रिपुरा में मुसलमानों का। यह मुल्क सभी का है और सभी नागरिक मिलजुल कर इसकी तरक्की के लिए काम करते हैं। जब किसी हिन्दू सरमायेदार की फैक्ट्री में कोई मुस्लिम कारीगर काम करता है तो वह उस फैक्टरी की बेहतरी के लिए ही अपने हुनर का इस्तेमाल करता है। हमें समझना चाहिए कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद क्या है? सांस्कृतिक राष्ट्रवाद यही है कि किसी हिन्दू दूल्हे की शादी के अवसर घोड़ी को सजा कर मुस्लिम 'सईस' ही उसकी रास पकड़े होता है और मीठी ईद पर हिन्दू हलवाई ही अपने मिष्ठान से ईद की खुशी में चार चांद लगाता है। यही तो है वह हिन्दोस्तान जिसके गुण दुनिया गाती है और इसे देवताओं की धरती का दर्जा देती है। यही है वह देश जहां शम्भू बन्धू इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद साहब की शान में 'नात' गाते हैं और 'नजीर बनारसी' श्री कृष्ण के बचपन की लीलाओं का वर्णन अपनी शायरी में करते हैं।