दिल्ली की कमान

पिछले कुछ वर्षों के दौरान दिल्ली में अलग-अलग मुद्दों पर फैसले लेने के सवाल पर सरकार और उपराज्यपाल के बीच कई मौकों पर स्पष्ट टकराव देखे गए।

Update: 2021-03-17 01:34 GMT

पिछले कुछ वर्षों के दौरान दिल्ली में अलग-अलग मुद्दों पर फैसले लेने के सवाल पर सरकार और उपराज्यपाल के बीच कई मौकों पर स्पष्ट टकराव देखे गए। इसमें एक सवाल मुख्य रहा कि दिल्ली की जनता से जुड़े मुद्दों पर फैसला लेने और उस पर मंजूरी देने का अंतिम अधिकार आखिर किसके पास है। इस मसले पर सरकार को अक्सर यह शिकायत रही कि दिल्ली के विकास कार्यों को लेकर वह जो भी नीतिगत फैसले लेती है, उस पर बिना किसी मजबूत आधार के उपराज्यपाल की ओर से अड़चन खड़ी की जाती है।

जबकि उपराज्यपाल अपने पद से जुड़ी जिम्मेदारी के तहत इस तरह के दखल को वैध बताते रहे। इस पर खासी जद्दोजहद के बाद अधिकारों की लड़ाई का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और जुलाई, 2018 में शीर्ष अदालत ने स्थिति स्पष्ट कर दी कि दिल्ली के उपराज्यपाल के पास स्वतंत्र फैसले लेने का अधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद के सहयोग और सलाह पर कार्य करना चाहिए। इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा कि भूमि, कानून-व्यवस्था और पुलिस को छोड़ कर दिल्ली सरकार के पास अन्य सभी विषयों पर कानून बनाने और उसे लागू करने का अधिकार है। यानी एक तरह से अदालत ने दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या कर दी।
इसके बावजूद बीते कुछ समय से अनेक ऐसे मौके आए जब दिल्ली में विकास कार्यों पर कोई फैसला लेने या उस पर अमल करने को लेकर सरकार और उपराज्यपाल के बीच खींचतान चलती रही। अब सोमवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने लोकसभा में इससे संबंधित जो विधेयक पेश किया है, उसमें उपराज्यपाल को अधिक शक्तियां देने का प्रावधान है। दिल्ली की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार (संशोधन) विधेयक, 2021 के तहत दिल्ली के विधानसभा में पारित कानूनों या मंत्रिपरिषद के फैसलों को लागू करने से पहले उपराज्यपाल को 'जरूरी मौका' देने की बात कही गई है।
जाहिर है, अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल को कोई भी कानून लागू करने से पहले उपराज्यपाल की 'राय' पर निर्भर होना पड़ेगा। हालांकि पहले भी विधानसभा में कानून पास होने के बाद उपराज्यपाल के पास भेजा जाता था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह महज सूचना देने की औपचारिकता तक सीमित था। लेकिन अब अगर यही पक्ष बाध्यता या नियम के तहत लागू होगी तो स्वाभाविक रूप से यह इस मसले पर दिल्ली सरकार की भूमिका महज औपचारिक रह जाएगी और मुख्य शक्ति उपराज्यपाल के पास केंद्रित रहेगी। यानी व्यवहार में उपराज्यपाल को सरकार के तौर पर देखा गया है।
सवाल है कि केंद्र सरकार के इस कदम के बाद दिल्ली में सरकार का जो ढांचा रहेगा, उसमें जनता के प्रति किसकी जवाबदेही रहेगी! क्या यह दिल्ली में चुनी हुई सरकार की भूमिका को कमजोर करने की कोशिश है? अगर दिल्ली में विधानसभा के लिए चुनाव होंगे तो उसमें शामिल पार्टियों के जनता से वोट मांगने का आधार क्या होगा? मौजूदा व्यवस्था में उपराज्यपाल केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं।
एक ओर केंद्रीय शक्ति उपराज्यपाल के हाथों में रहेगी, दूसरी ओर दिल्ली और केंद्र में दो विरोधी पार्टियों की सरकार होगी तो ऐसे में मुद्दों पर मतभेद के चलते कामकाज और नीतिगत फैसलों पर अमल को लेकर आखिरी जवाबदेही किसकी और किसके प्रति होगी? जनता के सामने अगर अपने प्रतिनिधियों से जवाब मांगने की नौबत आएगी तो वैसी स्थिति में वह किसी उपलब्धि या कमी के लिए किसे जिम्मेदार ठहराएगी? इस विधेयक के पेश होने के साथ ही ऐसे तमाम सवाल उभरना स्वाभाविक है।

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