प्रकृति के रंग: उल्लास और उमंग की तरंग, वसंत के संग
ज्ञान संवर्धन का प्रयास ही सच्चे अर्थों में वसंत पर्व की सार्थकता प्रदान कर सकता है।
प्रकृति अपने यौवन के साथ कण-कण में मधुरता, उत्साह, उल्लास बिखेरती हुई आती है, तो वसंत के आगमन की अनुभूति स्वयमेव हो जाती है। इस अनुभूति को संजोकर रखने, प्रेरणा ग्रहण करने के उद्देश्य से वसंत पर्व मनाना चाहिए। यह पर्व कला के विविध गुणों, शिक्षा, विद्या, साधना का पर्व भी है। अपूर्णता को पूर्णता में बदलने के प्रयास हेतु संकल्पित होने का पर्व है। अशिक्षित, गुणरहित, बलरहित, व्यक्ति को पशुतुल्य माना गया है। पशुता के घेरे से निकलकर मनुष्य जीवन के रूप में मिले स्वर्णिम अवसर को गंवाने के बजाय विद्या संपन्न, कलासंपन्न बनने की प्रेरणा के लिए ही यह महापर्व आता है।
भगवती सरस्वती के इस पावन अवसर पर उनकी कृपा प्राप्ति के लिए प्रार्थना, पूजा-अर्चना करनी चाहिए। कला, ज्ञान, संवेदना हमारे जीवन में आए, हमारे विचारों में आदर्शवादिता की उच्च स्तरीय सद्भावनाओं का समावेश हो। मनोयोग पूर्वक प्रार्थना से दिव्य शक्तियों के मानव रूप में चित्रित आकृति के प्रति सहज ही भाव संवेदना उभर आती है। इनकी साकार उपासना से हमारी आंतरिक चेतना भी देव गरिमा के अनुरूप परिणत हो जाती है। यह पूजा-अर्चना मात्र प्रतीक पूजन तक ही सीमित न रहे, अपितु शिक्षा की महत्ता को समझ स्वीकार कर अपने ज्ञान की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत करने का प्रयास करना चाहिए। आज धन संग्रह करने, बढ़ाने की होड़ लगी हुई है। लोग इस तथ्य को भूल बैठे हैं कि ज्ञान की संपदा से बढ़कर और कोई संपदा नहीं। धन बढ़ाने व संग्रह करने की अपेक्षा यदि हम ज्ञान बढ़ाने व संग्रह संपादन करने की रीति-नीति अपना लें, तो हर क्षेत्र में निःसंदेह हम उत्कृष्ट बनते चले जाएंगे। हमारे जीवन का सर्वांगीण विकास होता चला जाएगा।
शिक्षा, साक्षरता के इस पर्व पर विद्या के वास्तविक स्वरूप को भी समझना आवश्यक है। आज शिक्षा का उद्देश्य मात्र नौकरी प्राप्त करना हो गया है। इस विचार को बदलना आज अनिवार्य हो गया है। विद्या मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास, गौरव निखार के लिए है। शरीर के लिए भोजन की तरह ही विद्या मस्तिष्क की अनिवार्य आवश्यकता है। अपने दैनिक जीवन में स्वाध्याय को स्थान दें। जो शिक्षित हैं, उन्हें विद्या ऋण चुकाने के लिए अपने समीप के अशिक्षितों को शिक्षित करने हेतु संकल्पित होना चाहिए। हम ज्ञान की गरिमा-महिमा को समझने लग जाएं और हमारे अंतःकरण में उसके लिए तीव्र उत्कंठा जाग पड़े, तभी समझना चाहिए कि पूजन-वंदन की प्रक्रिया से विद्या के प्रकाश से हमारा कण-कण प्रकाशित हो गया। माता सरस्वती का वाहन मयूर है।
प्रकृति ने मयूर को कलात्मक सुसज्जित बनाया है। हमारी अभिरुचि भी प्रेम, सौंदर्य स्वच्छता, सुसज्जनता के प्रति जागे। हमारा व्यवहार विनीत, शिष्टता व आत्मीयतायुक्त हो। वाद्य यंत्र, वीणा मात्र एक स्थूल वस्तु नहीं, अपितु मनुष्य की उदात्त भावनाओं और हृदय तरंगों को व्यक्त करने का सहयोगी साधन है। स्थूल व जड़ पदार्थ भी चेतनायुक्त तरंगों से स्वरलहरियों के संयोग से सूक्ष्म रूप में एक विशेष प्रकार की चेतना से युक्त हो जाते हैं। हम भी अपनी हृदय तरंगों को उदात्त भावनाओं में नियोजित करें। कलाप्रेमी बनें, कला के पुजारी बनें। साथ ही कला के संरक्षक भी बनें, कला को कुत्सित व अपवित्र होने से बचाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहें।
भगवती सरस्वती का अभिनंदन प्रकृति स्वयं वसंत अवतरण के रूप में करती है। प्रकृति के कण-कण में हंसी व मुस्कान के पुष्प खिल पड़ते हैं, उसी प्रकार जीवन में माता सरस्वती की कृपा अवतरित होने पर मुनष्य में स्वभाव, दृष्टिकोण क्रियाकलापों में वसंत ही वसंत दीखता है। कठिन से कठिन कार्य भी सफलतापूर्वक पूर्ण हो जाते हैं। पेड़-पौधों पर आए फूल अपने व्यक्तित्व को निर्मल, निर्दोष आकर्षक व सुगंधित बनाने की प्रेरणा देते हैं। कोयल की मस्ती भरी कूक, भौरों की गुंजन, जीवन जीने की कला सिखाते हैं। हर जड़-चेतन में वसंत ऋतु में सृजनात्मक उमंग परिक्षित होने लगती हैं। इस उमंग को वासना से भावोल्लास के ऊर्ध्व स्तर पर विकसित किया जाना चाहिए। वसंत जैसा उल्लास कलात्मक प्रवृत्तियों का विकास और ज्ञान संवर्धन का प्रयास ही सच्चे अर्थों में वसंत पर्व की सार्थकता प्रदान कर सकता है।
सोर्स: अमर उजाला