जलवायु संकट और हमारी तैयारी: आईपीसीसी की नवीनतम रिपोर्ट इसे 'मानवता के लिए खतरनाक स्थिति' बताती है
जलवायु संकट और हमारी तैयारी
पत्रलेखा चटर्जी।
अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा और अशरफ गनी सरकार के पतन को कई टिप्पणीकार चारों तरफ से घिरे उस अशांत राष्ट्र के लिए 'खतरनाक स्थिति' के रूप में देखते हैं। हालांकि हमारे अस्तित्व के लिए एक और खतरे की अनदेखी नहीं करनी चाहिए- वह है जलवायु परिवर्तन। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट इसे 'मानवता के लिए खतरनाक स्थिति' बताती है।
रिपोर्ट बताती है कि 1970 से अब तक वैश्विक सतह के तापमान में जितनी वृद्धि हुई है, वह पिछले 2,000 साल में किसी भी अन्य 50 वर्ष के कालखंड की तुलना में अधिक है। वैश्विक तापमान में यह बढ़ोतरी 'पहले से ही दुनिया भर के हर क्षेत्र में मौसम और जलवायु संबंधी कई चरम स्थितियों को प्रभावित कर रही है।' हम दुनिया के हर हिस्से में जलवायु परिवर्तन के असर देख रहे हैं। हमारे कार्यों के जरिये पैदा होने वाले जलवायु परिवर्तन के कारण लू, तूफान, आगजनी, बाढ़ और भूस्खलन की संख्या और तीव्रता में तेजी से वृद्धि हो रही है। दुनिया के लाखों अति निर्धन लोगों के देश भारत को इससे चिंतित होना चाहिए और बेहतर तैयारी करनी चाहिए, क्योंकि भविष्य अधिक संकटग्रस्त दिखता है-यानी उच्च आर्द्रता, अनियमित वर्षा, अधिक सूखा, बाढ़ और जंगल की आग से वैश्विक तापमान और बढ़ने की आशंका।
जलवायु परिवर्तन न केवल जीवन और आजीविका को प्रभावित करता है, यह 21वीं सदी के सबसे बड़े स्वास्थ्य खतरों में से एक है। बढ़ते तापमान और अनियमित वर्षा ने कृषि को प्रभावित किया है। यानी यह पोषण को भी प्रभावित करता है। इसलिए केंद्र एवं राज्य सरकारों को अपने पोषण कार्यक्रमों में तेजी लानी चाहिए। इस खतरे के प्रति हम कितने जागरूक और तैयार हैं? क्या हम इस खतरे में अन्य कारकों को जोड़ते हैं? मसलन, मौसम की चरम घटनाओं में वृद्धि में खासकर भारत के हिमालयी क्षेत्रों में भूस्खलन की बढ़ती घटनाएं भी शामिल हैं। हाल ही में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में हुए भूस्खलन में 25 से ज्यादा लोगों की मौत हुई और कुछ लोग घायल हुए।
पर आपदा की तैयारी के नाम पर ज्यादातर बचाव, राहत और मुआवजे पर ध्यान दिया जाता है। ये सब भी जरूरी हैं, पर यही पर्याप्त नहीं हैं। अपनी स्थलाकृति, जलवायु परिस्थिति और पारिस्थितिकी के कारण हिमालयी क्षेत्र काफी संवेदनशील है और यह क्षेत्र आपदा के लिहाज से संवेदनशील है। हिमालयी क्षेत्र में काम करने वाली जानी-मानी पर्यावरण कार्यकर्ता और शोधार्थी मानशी अशर बताती हैं कि पिछले कुछ दशकों में जलवायु संकट ने इन आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता और बढ़ा दी है। वह कहती हैं, 'लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारक, जो 'प्राकृतिक आपदाओं' के पीछे छिप जाता है, वह है विकास मॉडल की प्रकृति, जिससे वनों की कटाई, भूमि के कटाव में वृद्धि और ढलान की अस्थिरता आदि समस्या पैदा हुई है, जो न केवल ज्यादा आपदाओं को जन्म देती है, बल्कि नुकसान को भी कई गुना बढ़ा देती है।'
भूस्खलन के मामले में पूरे हिमाचल के लिए बेहतर अध्ययन और व्यापक भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्रण की जरूरत है। भूस्खलन आपदा जोखिम आकलन (2015) बताता है कि हिमाचल का 90 फीसदी हिस्सा उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में है। और फिर भी, जैसा कि अशर जैसी शोधकर्ता बताती हैं, 'नीति निर्माताओं और सरकारी विभागों का ध्यान 'रोकथाम' के बजाय 'प्रबंधन' पर है। प्रबंधन या शमन के प्रयासों ने सुरक्षात्मक दीवारों या वृक्षारोपण को कम कर दिया है, जो अपर्याप्त हैं और विफल हो गए हैं। उपलब्ध साक्ष्य निर्णय लेने में मदद नहीं कर रहे हैं, यही वजह है कि सरकारें अधिक जलविद्युत परियोजनाओं और चार लेन वाले राजमार्गों पर जोर दे रही हैं।'
नीति निर्माण में हमें जमीनी स्तर के साक्ष्यों को शामिल करने की जरूरत है। भारत जैसे तेजी से शहरीकरण वाले देश की स्थिति कमजोर है, क्योंकि शहर 'गर्मी के द्वीप' तब बनते हैं, जब वे भूमि के प्राकृतिक आवरण को सीमेंट व कंकरीट-फुटपाथ, इमारत और गर्मी को अवशोषित करने वाली अन्य सतह-के जरिये बदल देते हैं। हमारे यहां लू के और घातक होने की आशंका है। निर्माण श्रमिकों और बाहर काम करने वाले लोगों को लू का खतरा ज्यादा होता है। वर्ष 2010 से 2018 के बीच भारत में लू के कारण 6,000 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन कुछ ही भारतीय शहर बदली परिस्थितियों का मुकाबला करने को तैयार हैं। मसलन, अहमदाबाद ने सबसे पहले हीट ऐक्शन प्लान तैयार किया था, जिसने 2010 में भीषण लू का सामना किया था और तब 800 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी।
लगभग एक दर्जन राज्यों के करीब 30 शहर इसी तरह की योजनाएं लागू कर रहे हैं, जो लोगों को बेहद गर्म मौसम के दौरान स्वास्थ्य समस्याओं से बचाने में मदद कर सकती हैं। पर यह पर्याप्त नहीं होगा। विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय शहरों को ठंडक पहुंचाने के तरीके तलाशने होंगे-शहरों में अधिक हरे-भरे स्थान बनाना सबसे प्रभावी समाधान है। हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा तटीय इलाकों में रहता है। जबकि बढ़ते समुद्री जलस्तर द्वारा लाया गया खारा पानी कई जगह एक किलोमीटर तक के पेयजल स्रोतों को विषैला कर देता है। हिंद महासागर दुनिया का सबसे तेजी से गर्म होने वाला महासागर है; लिहाजा दूसरों की तुलना में हमारे लिए स्थिति बदतर है।
तटीय इलाकों के अधिकांश लोगों को नमकीन पानी पीना पड़ता है, जो उच्च रक्तचाप बढ़ा सकता है। जलवायु परिवर्तन अब भी हमें प्रभावित कर रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर अति निर्धन लोगों पर पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य, पोषण, आजीविका सहित इसके दैनिक प्रभावों के बारे में अधिक जागरूकता अभियानों की तत्काल जरूरत है। जलवायु परिवर्तन नीति अपने जोखिम पर ही जमीनी साक्ष्यों की अनदेखी कर सकती है।