स्वच्छता को पलीता: रेलपथ बन गए हैं कूड़ेदान

उसके उद्धार के लिए रेलवे के पास न तो इसका कोई रोडमैप है और न ही यह उसकी प्राथमिकता में दिखता है।

Update: 2021-10-05 01:42 GMT

वर्ष 2014 में शुरू हुए स्वच्छता अभियान की सफलता के दावे और आंकड़ों में जो कुछ भी फर्क हो, पर यह बात सच है कि इससे आम लोगों में साफ-सफाई के प्रति जागरूकता जरूर आई है। अब शहरी क्षेत्रों पर केंद्रित स्वच्छता अभियान का दूसरा चरण शुरू हुआ है, लेकिन हकीकत यह है कि किसी भी शहरी-कस्बे में प्रवेश के लिए बिछाई गई रेल की पटरियां बानगी हैं कि यहां अभी स्वच्छता के प्रति निर्विकार भाव बरकरार है।

कहते हैं कि भारतीय रेल हमारे समाज का असल आईना है। इसमें इंसान नहीं, बल्कि देश के सुख-दुख, समृद्धि-गरीबी, मानसिकता, मूल व्यवहार जैसी कई मनोवृत्तियां सफर करती हैं। भारतीय रेल 66 हजार किलोमीटर से अधिक के रास्तों के साथ दुनिया का तीसरा सबसे वृहत नेटवर्क है, जिसमें हर रोज बारह हजार से अधिक यात्री गाड़ियां और कोई सात हजार मालगाड़ियां गुजरती हैं।
अनुमान है कि इस नेटवर्क में हर रोज कोई दो करोड़ तीस लाख यात्री सफर करते हैं तथा एक अरब मीट्रिक टन सामान की ढुलाई होती है। दुखद है कि पूरे देश की रेल की पटरियों के किनारे गंदगी और कूड़े सिस्टम की उपेक्षा की तस्वीर पेश करते हैं। कई जगह तो प्लेटफार्म भी अतिक्रमण, अवांछित गतिविधियों और कूड़े का ढेर बने हुए हैं।
देश की राजधानी दिल्ली के रेलवे ट्रैक को ही देख लें, तो जाहिर हो जाएगा कि देश का असली कचरा घर तो रेल पटरियों के किनारे ही संचालित हैं। कल्पना कीजिए कि जब विदेशी पर्यटकों को दिल्ली से 50 किलोमीटर पहले से ही पटरियों के दोनों तरफ कूड़े, गंदे पानी, बदबू का अंबार दिखता है, तो उनकी निगाह में देश की कैसी छवि बनती होगी? सराय रोहिल्ला से जयपुर जाने वाली ट्रेन लें या अमृतसर या चंडीगढ़ जाने वाली शताब्दी, जिनमें बड़ी संख्या में एनआरआई भी होते हैं, गाड़ी की खिड़की से बाहर देखना पसंद नहीं करते।
इन रास्तों पर रेलवे ट्रैक से सटी हुई झुग्गियां, दूर-दूर तक अब भी खुले में शौच जाते लोग उन विज्ञापनों को मुंह चिढ़ाते दिखते हैं, जिसमें सरकार के स्वच्छता अभियान की उपलब्धियों के आंकड़े चिंघाड़ते दिखते हैं। असल में रेल पटरियों के किनारे की कई-कई हजार एकड़ भूमि अवैध अतिक्रमणों की चपेट में हैं। इन पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भू-माफिया का कब्जा है, जो कि वहां रहने वाले गरीब मेहनतकश लोगों से वसूली करते हैं।
इनमें से बड़ी संख्या में लोगों के जीवकोपार्जन का जरिया कूड़ा बीनना या कबाड़ी का काम करना ही है। ये लोग पूरे शहर का कूड़ा जमा करते हैं, अपने काम का सामान निकाल कर बेच देते हैं और शेष रेल पटरियों के किनारे ही फेंक देते हैं, जहां धीरे-धीरे गंदगी के पहाड़ बन जाते हैं।
कचरे का निष्पादन पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है। यह सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिशत का ही ईमानदारी से निष्पादन हो पाता है। राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है या फिर रेल पटरियों के किनारे फेंक दिया जाता है।
पटरियों के किनारे जमा कचरे में खुद रेलवे का भी बड़ा योगदान है। खासकर शताब्दी, राजधानी जैसी गाड़ियों में, जिनमें यात्रियों को भोजन और नाश्ता परोसा जाता है और भोजन एक बार परोसे जाने वाले बर्तनों में ही होता है, जिसे इस्तेमाल के बाद फेंक दिया जाता है। खानपान व्यवस्था वाले कर्मचारी बचा भोजन, बोतल, पैकिंग सामग्री के ढेर चलती ट्रेन से पटरियों के किनारे ही फेंक देते हैं। कोरोना काल में अभी इन ट्रेनों में भोजन वितरण बंद है, लेकिन यात्री अपने पैसों से तो खाद्य सामग्री खरीद ही रहे हैं।
कुछ साल पहले बजट में 'रेलवे स्टेशन विकास निगम' के गठन की घोषणा की गई थी, जिसने रेलवे स्टेशन को हवाई अड्डे की तरह चमकाने के सपने दिखाए थे। कुछ स्टेशनों पर काम भी हुआ, लेकिन जिन पटरियों पर रेल दौड़ती है और जिन रास्तों से यात्री रेलवे व देश की सुंदर छवि देखने की कल्पना करता है, उसके उद्धार के लिए रेलवे के पास न तो इसका कोई रोडमैप है और न ही यह उसकी प्राथमिकता में दिखता है।

Tags:    

Similar News

मुक्ति
-->