By शशांक
हाल में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के संबंध में हुई एक बैठक में अन्य देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को शामिल करने का आपत्तिजनक निर्णय लिया गया है. यह परियोजना जम्मू-कश्मीर के उन क्षेत्रों से होकर गुजरती है, जिन पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है. भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस गलियारे और अन्य देशों व संस्थाओं को इससे जोड़ने पर ऐतराज जताया है. इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण से यह स्पष्ट होता है कि भारत के संदर्भ में चीन और पाकिस्तान अब तक जो गलतियां करते रहे हैं, आगे भी उनका रवैया वैसा ही बना रहेगा. पाकिस्तानी सत्ता वर्ग अपने देश को अपनी व्यक्तिगत जागीर समझता है और धीरे-धीरे मनमाने ढंग से उसका बंटवारा किया जा रहा है. बलूचिस्तान में वे पहले से ऐसी कोशिश करते आ रहे हैं और उस क्षेत्र में संसाधनों को चीन के हवाले किया जा रहा है. ऐसी स्थिति बन रही है कि बलूच लोगों पर चीन का नियंत्रण हो जायेगा. पाकिस्तान ऐसा ही जम्मू-कश्मीर के अवैध कब्जे वाले हिस्से के साथ करने की इच्छा रखता है. उसका कुछ भाग तो उन्होंने पहले ही चीन को सौंप दिया है.
पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति बेहद खराब दौर से गुजर रही है, लेकिन वहां के सत्ताधारी तबके को इसकी कोई परवाह नहीं है. उनका ध्यान केवल धन और संसाधनों की लूट पर केंद्रित है. चीन के अपने आर्थिक स्वार्थ हैं. चीन अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को भी अपने नियंत्रण में लेने की पूरी कोशिश कर रहा है. चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में तीसरे पक्ष को लाने की कवायद भी इसी कोशिश का हिस्सा है. हमें लगता है कि पाकिस्तान की जनता ही उसे ठीक जवाब देगी. पाकिस्तान में चल रहे चीनी परियोजनाओं, विशेषकर बलूचिस्तान में, का स्थानीय लोग लगातार विरोध कर रहे हैं. उनके संसाधनों पर चीन बैठा हुआ है और नागरिकों के साथ उसका व्यवहार औपनिवेशिक है. यह दुनिया के सामने आ चुका है कि जहां भी चीन जाता है, निवेश करता है, परियोजनाएं लगाता है, वहां की हालत खराब हो जाती है. ऐसा अनेक देशों में हो रहा है और आने वाले समय में कई देशों में यह स्थिति पैदा हो सकती है. पाकिस्तान के शासकों का रवैया भी चिंताजनक है. वे अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के बजाय अपने नागरिकों पर ही अत्याचार करने में लगे हुए हैं. चीन को लगता है कि मौजूदा हालात में पाकिस्तान को उस पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ेगा, तो वह अधिक से अधिक फायदा उठा लेना चाहता है.
अगर कथित गलियारे में कोई अंतरराष्ट्रीय संस्थान या देश शामिल होता है या होना चाहता है, तो उसे भारत की चिंताओं और भारतीय क्षेत्रों पर पाकिस्तान के अनधिकृत कब्जे के मामले का संज्ञान लेना होगा. भारत को भी उनके सामने अपनी बात को ठोस रूप में रखना होगा. ऐसी आशा करनी चाहिए कि कोई भी तीसरा पक्ष इस परियोजना में शामिल होकर भारत के साथ अपने संबंधों को खराब नहीं करना चाहेगा. भारत-पाकिस्तान संबंधों पर चीन की राय यह रही थी कि यह दोनों देशों का आपसी मसला है और ये जो तय करेंगे, उसे वह भी स्वीकार करेगा तथा भारत की जो जमीन पाकिस्तान ने उसे दी है, उसके बारे में भी फैसला दोनों देशों के समझौते के अनुसार होगा. लेकिन हाल के समय में चीन के रुख में बदलाव आया है तथा वह जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख के बारे में बयान देकर भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की कोशिश करने लगा है. इसके अलावा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर उसकी हरकतें लगातार आक्रामक होती गयी हैं. अब उसकी कोशिश है कि आर्थिक गलियारे में अन्य पक्षों को जोड़कर पूरे मसले को और भी उलझा दिया जाये तथा उन इलाकों को अपने नियंत्रण में ले लिया जाये.
चीन की आर्थिक और सामरिक आक्रामकता को उसकी घरेलू स्थिति के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए. चीनी नेतृत्व की मंशा क्या है और वे देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं, यह वहां की जनता भी नहीं समझ पा रही है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उनके कुछ बेहद करीबी नेताओं के अलावा बाकी नेता भी असमंजस में हैं. हाल में हमने देखा कि चीन की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि लोग बैंकों में जमा अपने अरबों डॉलर ही नहीं निकाल पा रहे हैं. विरोध करने पर उन्हें बंदूकें दिखायी जा रही हैं और बैंकों के सामने टैंक तैनात किये जा रहे हैं. ऐसे में हमें यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि चीन कोई तार्किक या बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार करेगा. उसकी आंतरिक स्थिति का मामला इस साल के अंत तक निर्णायक मोड़ पर पहुंचेगा, जब सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी का सम्मेलन होगा. शायद उस सम्मेलन में जनता की बातों व विचारों पर गौर किया जायेगा. ताइवान और दक्षिण चीन सागर में चीनी आक्रामकता का ठोस प्रतिकार अमेरिका की ओर से मिल रहा है. ऐसे में चीन की मंशा यह है कि वह भारत पर दबाव बनाकर अन्य एशियाई देशों को यह संदेश दे सकता है कि भारत से उनकी निकटता से चीन पर असर नहीं होगा.
भारत को अपनी आर्थिक प्रगति पर ध्यान देकर सीमावर्ती क्षेत्रों में बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना चाहिए तथा पड़ोसी देशों से संबंधों को मजबूत करना चाहिए. इस दिशा में सराहनीय प्रयास हो रहे हैं और उन्हें और तेज किया जाना चाहिए. हमें यह संदेश अपने पड़ोसियों और एशिया के अन्य देशों को देना चाहिए कि भारत के साथ जुड़ने में पूरे क्षेत्र और महादेश का हित है. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पश्चिमी देश भी इस क्षेत्र में अपने हितों को साधते रहे हैं. वे पाकिस्तान की कारगुजारियों से भली-भांति परिचित हैं, फिर भी उसे आर्थिक और सैन्य सहायता मिलती रहती है. अतिवाद व आतंकवाद के प्रचार-प्रसार में उसकी नकारात्मक भूमिका के बावजूद उस पर अपेक्षित दबाव नहीं बनाया जाता है. पश्चिमी देश यह चाहते हैं कि पाकिस्तान और कुछ अन्य देशों से निकलनेवाली आतंकी लपटें उन तक न पहुंचे. भारत से अच्छे संबंधों के बावजूद पश्चिमी देश यह नहीं चाहते कि भारत बहुत आगे निकले. पाकिस्तान को दिया गया सबसे अहम गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा अभी भी बरकरार है. हम यह भी पाते हैं कि पश्चिम की गैर-सरकारी संस्थाएं भारत-विरोधी अभियान चलाती रहती हैं. ऐसे में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर पश्चिम से हमें बहुत अधिक सहयोग की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए तथा स्वतंत्र विदेश नीति के जरिये चीन व पाकिस्तान के रवैये का विरोध करना चाहिए.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)