जाति जाती नहीं
चातुर्वण्य व्यवस्था की शास्त्रोक्त स्थापना से लेकर आज तक समाज में जाति की जड़ें इतनी गहरे पैठी हैं कि जाति जाती ही नहीं है। जाति का वर्चस्व पूरे भारत में है, लेकिन जहां राजा-महाराजा, सामंत, सभासदों का बोलबाला रहा, वहां जाति को ज्यादा मजबूती मिली।
रत्नकुमार सांभरिया: चातुर्वण्य व्यवस्था की शास्त्रोक्त स्थापना से लेकर आज तक समाज में जाति की जड़ें इतनी गहरे पैठी हैं कि जाति जाती ही नहीं है। जाति का वर्चस्व पूरे भारत में है, लेकिन जहां राजा-महाराजा, सामंत, सभासदों का बोलबाला रहा, वहां जाति को ज्यादा मजबूती मिली।
जाति की जड़ें लहू में इस कदर संचरित हैं कि हिंदू समाज का व्यक्ति अगर सात समंदर पार भी जाता है, तो वह अपने अन्य जरूरी सामान के साथ जातपांत और छुआछूत को भी लेकर जाता है और जब दो अनजान भारतीय विदेश में मिलते हैं, तो परस्पर जातीय पहचान का निवेश होता है।
रोटीबंदी, बेटीबंदी, जातिबंदी और व्यवसायबंदी वर्णव्यवस्था के ये चार स्तंभ हैं, जिस पर जाति का ब्रह्मांड टिका हुआ है। इन चारों वर्जनाओं के बरक्स जो जाति जितनी छोटी होती जाती है, जाति उसके लिए अभिशाप बनती जाती है और जो जाति जितनी ऊंची होती जाती है, जाति उसके लिए वरदान साबित होती है। छोटी जाति का व्यक्ति अपनी जाति को कोढ़ के दाग की भांति छुपाए रखना चाहता है। जबकि बड़ी जाति का आदमी मस्तक पर लगे तिलक की भांति अपनी जाति उजागर करने का इच्छुक होता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में जाति का प्रभाव शहरों की अपेक्षा कहीं अधिक है। वहां जातीय दंभ इतना भयावह है कि न केवल इंसानों की जातियां हैं, बल्कि कुएं, जोहड़, तालाबों, घाटों, हैंडपंप और शमशान घाट तक की पृथक जातियां होती हैं। जाति मरने के बाद भी नहीं जाती है।
जातिवाद के इस विद्रूप के कारण निम्न जाति का आदमी जाति को झेलते हुए गांव में जीता है। अगर कोई नवागंतुक व्यक्ति गांव में किसी के घर जाने के लिए रास्ता पूछता है, तब भी सबसे पहले उसकी जाति पूछी जाती है। इसके उलट शहर में उससे प्लाट नंबर पूछा जाता है। जाति की जडेÞं इतनी गहरी हैं कि न केवल समाज में, बल्कि जो समाज से विरक्त होकर संन्यास ले चुके हैं, उनमें भी जातीय संस्कार बरकरार हैं।
जब दो अपरिचित साधु आपस में मिलते हैं तो शास्त्रार्थ, धर्मदीक्षा, पाठ-पूजा पद्धति, शास्ता-आराध्य या अमुक मंदिर या मठ-पीठ, गद्दी के बारे में पूछने के बजाय उनका पहला सवाल जाति से जुड़ा होता है। अध्यात्म के लिए घर-परिवार और मायावी संसार से संन्यास लेने के उपरांत भी वे जाति नहीं छोड़ पाते हैं।
इंसुलिन प्राणरक्षक भले हो, लेकिन वह प्रत्येक व्यक्ति को माफिक नहीं बैठती है। किसी के लिए वह जानलेवा भी हो सकती है। इसी तरह जाति निम्न वर्ग के लिए घातक है। कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की गोली कहा था। इसलिए भारत में उनके कम्युनिस्ट अनुयायी धर्म से विशेष सरोकार नहीं रखते और जब-तब धर्म का विरोध भी करते सुने गए हैं, जबकि वे जाति को बखूबी जीते हुए पाए जाते हैं।
यानी धर्म से विरक्ति के उपरांत भी जाति के प्रति उनकी अनुरक्ति बराबर बनी रहती है। जाति का महत्त्व वर्ण की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। ब्राह्मण की सुरक्षा जाति की श्रेष्ठता के कारण, क्षत्रिय की सुरक्षा उसके बाहुबल के कारण और वैश्य की सुरक्षा उसके धन-बल के कारण होती रही है। शूद्रों का काम निर्बल होने के कारण अन्य तीनों वर्णों की सेवा-चाकरी करना तय हुआ।
यहां एक तथ्य उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपनी उत्पत्ति से लेकर आज तक तीन स्वतंत्र जातियों के रूप में अस्तित्व में हैं। जबकि शूद्र वर्ण न होकर एक वर्ग है, जिसकी जातियां-उपजातियां कालांतर में बनती और पृथक वजूद पाती रही हैं। हर जाति आज अपनी उत्पत्ति की श्रेष्ठता खोजने में लीन है।
देश भर में ऐसी घटनाएं नगण्य हैं जब किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य को उसकी जाति के कारण उत्पीड़न का सामना करना पड़ा हो, लेकिन अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 लागू होने के बावजूद इन जातियों पर होने वाले अत्याचारों की फेहरिस्त दिनोंदिन लंबी होती जा रही है।
दलित दूल्हों को घोड़ी से उतार देने जैसा अमानवीय व्यवहार हो, मूंछें रखने पर हत्या कर देने जैसा नृशंस कृत्य हो या दलित-आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे भयावह हादसे हों, या आनर किलिंग जैसी जघन्य घटनाएं हों। ये घटनाएं धर्म की जकड़बंदी के कारण नहीं, जाति की दबंगई के कारण घटित होती हैं। वरना उत्पीड़ित और उत्पीड़क दोनों समान धर्मावलंबी होते हैं।
वर्णव्यवस्था को लेकर गांधीजी और आंबेडकर की अवधारणा के अलग-अलग निहितार्थ हैं। गांधीजी की शास्त्रोक्त वर्णव्यवस्था में अटूट आस्था थी और वे इसे हिंदू समाज की रीढ़ कहते थे। इसके विपरीत आंबेडकर का वर्णव्यवस्था में लेस मात्र भी विश्वास नहीं था और वे इसे हिंदू समाज का कोढ़ कहते थे।
गांधीजी जहां वर्णव्यवस्था को बिना चोट पहुंचाए अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए आंदोलनरत थे, आंबेडकर वर्णव्यवस्था को छुआछूत और जातिभेद की जननी मानते थे और इसे जड़मूल से नष्ट करने को आमादा थे। उन्होंने आह्वान किया था कि जैसे ऊंची-नीची जमीन से अच्छी पैदावार की आशा नहीं की जा सकती, उसी प्रकार समाज में ऊंच-नीच की भावना के रहते राष्ट्र की प्रगति नहीं हो सकती। अत: मैं एक ऐसे समाज की रचना चाहता हूं, जो समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की भावना से भरी हो।
पंजाब के संतराम बीए डा. आंबेडकर के समकालीन थे। उन्होंने भाई परमानंद के साथ मिल कर सन 1922 में जातिपांति तोड़क मंडल की स्थापना लाहौर में की थी। उनके ही प्रयास से सन 1936 में लाहौर में मंडल का अधिवेशन आयोजित किया गया था।
उसमें आयोजकों के आग्रह पर डा. आंबेडकर ने अपना अध्यक्षीय भाषण लिखित रूप में भिजवा दिया था। आयोजकों ने इसे वर्णव्यवस्था की मर्यादाओं के विपरीत मान कर जाति से जुडेÞ उदाहरणों को निकालने के लिए डा. आंबेडकर से आग्रह किया। डा. आंबेडकर ने ऐसा करने से सख्त मना कर दिया था। उसके बाद वह सम्मेलन नहीं हो पाया और संतराम बीए ने उनके मूल भाषण का 'जाति का विनाश' नाम से अनुवाद कर प्रकाशित करवाया।
डा. आंबेडकर और गांधीजी के बीच 24 सितंबर, 1932 को यरवदा जेल में हुए ऐतिहासिक पूना पैक्ट का हेतु भी जाति ही रही, धर्म नहीं। इसके तहत राज्य विधानसभाओं में अछूतों की जनसंख्या के अनुरूप सीटें आरक्षित की गई। अर्थात मद्रास 30, बंबई 15, पंजाब 8, बिहार, ओड़ीशा 18, केंद्रीय प्रांत 20, असम 7, बंगाल 30 और उत्तर प्रदेश की 20 सीटें आरक्षित हुर्इं।
जाति के वर्चस्व के सामने पद और पैसा न्यून हो जाते हैं। उसका एक ज्वलंत उदाहरण है, 24 जनवरी 1978 को संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में बाबू जगजीवन राम द्वारा संपूर्णानंद की प्रतिमा का अनावरण। उस समय वे मोरारजी देसाई सरकार में देश के रक्षामंत्री थे। अनावरण कार्यक्रम के बाद वे प्रस्थान कर गए। लोगों ने आरोप लगाया कि उनके जाने के बाद जातिवादी लोगों ने प्रतिमा को दूध से धोकर कथित रूप से पवित्र किया था।
बाबू जगजीवन राम भले हिंदू धर्मावलंबी थे, देश के रक्षामंत्री जैसे बड़े पद पर थे। धन भी खूब था, लेकिन तथाकथित निम्न जाति का होने के कारण उनका यह अवमान साक्षात हुआ।
भारतीय संविधान के भाग तीन में मूल अधिकार, धारा 17 के तहत अस्पृश्यता का अंत उल्लेखित है, क्योंकि छुआछूत जाति के उदर में अमीबा की भांति विद्यमान है। आज देश आजादी का अमृत महोत्सव भले मना रहा हो, जातिभेद की जमीन दिनोंदिन मजबूती पकड़ती जा रही है।