दुनिया जानती है कि 2016 का पंजाब विधानसभा चुनाव कांग्रेस पार्टी ने कैप्टन की अगुवाई में उनकी एक कुशल प्रशासक की साख को आगे रख कर लड़ा था जिसमें उसे अभूतपूर्व सफलता मिली थी। वर्तमान में भी कैप्टन का पंजाब में कोई विकल्प नहीं हैं परन्तु नवजोत सिंह सिद्धू कुछ महत्वाकांक्षी कांग्रेस विधायकों के साथ कैप्टन के विरुद्ध विद्रोह जैसा माहौल बनाने में व्यस्त हैं। उन्होंने ऐसा समय जानबूझ कर चुना जब राज्य में पुनः चुनाव होने में आठ महीने का समय रह गया है। सिद्धू ने यह सोच कर विद्रोह का माहौल बनाने की कोशिश की होगी कि संभवतः कैप्टन 2022 में होने वाला विधानसभा चुनाव न लड़ें अथवा हाईकमान उनका रुतबा देखते हुए उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में ले आये। मगर कांग्रेस पार्टी फिलहाल भयंकर संकट के दौर से गुजर रही है और पंजाब जैसे महत्वपूर्ण राज्य में वह कोई प्रयोग करना नहीं चाहेगी। विशेष रूप से सिद्धू जैसे दल- बदलू नेता पर तो वह कोई दांव खेलना पसन्द नहीं करेगी क्योंकि ऐसा सोचना ही पंजाब में कांग्रेस द्वारा आत्महत्या करने के समान होगा। सिद्धू ने सिर्फ इतना जरूर किया है कि अपनी जुमलेबाज जबान से पार्टी के एक नवोदित वर्ग को प्रभावित करने में सफलता हासिल की है मगर आलाकमान के घाघ नेता जानते हैं कि एेसे राजनीतिज्ञों की जमीनी पकड़ भी जुमलों की तरह अस्थायी होती है, इसलिए सिद्धू की दाल गलने की उम्मीद धराशायी हो गई। जहां तक पंजाब की राजनीति का सवाल है तो यह कैप्टन के चारों तरफ ही घूमती है। जहां तक जमीनी राजनीति का सवाल है तो कांग्रेस शासन को जब 2016 में सत्ता मिली थी तो पिछली अकाली सरकारों ने इसे कंगाल बना कर छोड़ दिया था। हालत यह थी कि सरकार के पास अपने कर्मचारियों को तनख्वाह तक देने के पैसे नहीं थे। अकालियों ने सरकारी इमारतों तक को गिरवी रख कर धन उगाह रखा था।
राज्य की वित्तीय हालत सुधारने के लिए कैप्टन ने अकाली दल से विद्रोह करके पहले अपनी अलग पार्टी बनाने वाले और बाद में कांग्रेस में आने वाले मनप्रीत सिंह बादल को अपना वित्तमन्त्री बनाया। मनप्रीत बादल वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ माने जाते हैं। कांग्रेस के भीतर सिद्धू के अलावा राज्यसभा सदस्य प्रताप सिंह बाजवा भी यदा-कदा विद्रोह की बाणी बोल जाते हैं। इनका जमीनी आधार भी नाममात्र का माना जाता है। दूसरी तरफ कैप्टन की हैसियत यह है कि पिछले लोकसभा चुनावों में इन्होंने हर लहर को तोड़ते हुए कांग्रेस के सर्वाधिक सांसद जिताये। सिद्धू तो बिहार में चुनावों के दौरान ऐसे 'बैन' बोल आये थे कि पार्टी को लेने के देने पड़ गये थे। उन्होंने पंजाब में मंत्री रहते हुए जो कारनामे किये उनसे हर पंजाबी अच्छी तरह वाकिफ है और ट्रेन दुर्घटना में मारे गये लोगों को अभी तक नहीं भूला है। मगर सत्ता की भूख उन्हें अपनी नई पार्टी को चैन से न बैठने देने के लिए बेचैन किये हुए है लेकिन दूसरी तरफ कांग्रेस को भी सोचना चाहिए उसने ऐसे तत्वों की मांग पर एक तीन सदस्यीय समिति गठित करके क्या हासिल किया? होना तो यह चाहिए था कि आलाकमान का कोई नुमाइन्दा खुद पंजाब जाता और सिद्धू को अपनी हदों में रहने का सबक सिखा कर आता। कांग्रेस इस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और उसकी स्थापित परंपराएं आने वाली पीढि़यों के लिए सबक का काम करती हैं।
वर्तमान इतिहास की पुस्तकों में दर्ज है कि जब साठ के दशक के शुरू में पं. जवाहर लाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. चन्द्रभानु गुप्ता को राज्य सरकार के मसलों पर विचार करने के लिए दिल्ली बुलाया था तो नेहरू जी के निवास तीन मूर्ति मार्ग पर हुई बैठक में स्व. गुप्ता ने कहा था कि पंडित जी यूपी की सरकार दिल्ली से नहीं बल्कि लखनऊ के दारुल शिफा से चलेगी (तब यूपी के मुख्यमन्त्री का निवास दारुल शिफा मार्ग पर ही था)। कांग्रेस में आज भी विद्वजनों की कमी नहीं हैं। मेरा यही इशारा काफी है। जहां तक सिद्धू का सवाल है तो वह अमृतसर के हैं और उनका फर्ज बनता है कि वह हरमन्दिर साहब जाकर 'गुरु रामदास जी महाराज' का यह 'शबद' अरदास में लगायें,
''मेरे राम एह नीच करम हर मेरे
गुणवन्ता हर-हर दयाल
कर किरपा बख्श अवगुण सब मेरे।''