विपक्ष के बाउंसर के आगे कप्तान इमरान का आउट होना तय !
इमरान खान के जाने का भारत- पाक संबंधों पर किसी बड़े प्रभाव की उम्मीद नहीं है
Faisal Anurag
"कप्तान" की पारी का अंत तय है. सहयोगियों ने ही उनका साथ छोड़ दिया है. आखिरी गेंद तक मुकाबले के पहले ही पाकिस्तान की सत्ता इमरान खान से बहुत दूर जा चुकी है. परेड ग्राउंड में इमरान खान के मेराथन भाषण के बावजूद उनका एक- एक विकेट तेजी से गिर रहा है. इमरान को कप्तान कह कर बुलाने का रिवाज है. एमक्यूएम- पी ने एलान कर दिया है कि वह अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में विपक्ष का साथ देगा. नेशनल एसेंबली में एमक्यूएम- पी के 7 मेंबर हैं. इमरान खान ने क्रिकेट की कप्तानी करते हुए पाकिस्तान को विपरीत हालातों में एकदिवसीय विश्वकप का चैंपियन बनाया था लेकिन साढ़े तीन साल पुरानी अपनी सरकार को बचाने में नाकामयाब होते दिख रहे हैं. घटनाक्रम में खामोशी के बावजूद साफ है कि सेना ही, पाकिस्तान की सत्ता किसके हाथों रहेगी, तय करती है.
इमरान खान के जाने का भारत- पाक संबंधों पर किसी बड़े प्रभाव की उम्मीद नहीं है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि कश्मीर को लेकर विपक्षी दलों के गठंबधन के लगभग सभी घटकों का नजरिया वही है जो पाक सेना और इमरान खान का है. लेकिन यह हो सकता है कि बैकडोर चैनल में तेजी आए और व्यापार की बहाली हो जाए. आंतरिक आतंकवाद से ग्रस्त पाकिस्तान पड़ोसी देशों को शांति का संदेश देने में कामयाब साबित नहीं हुआ है. आंतकवाद पर नियंत्रण के उसके दावे खोखले साबित हुए हैं. 30 मार्च को ही एक आतंकवादी हमले में पाक के छह सुरक्षाकर्मी मारे गए और 22 घायल हुए हैं.
इमरान खान और नए निजाम में एक बड़ा फर्क यह होगा कि पाकिस्तान की विदेश नीति एक बार फिर अमेरिका पर निर्भर हो सकती है. पिछले साढ़े तीन साल में अमेरिका के विरोध के बावजूद इमरान खान ने चीन, रूस और तुर्की के साथ संबंध मजबूत बनाये. यूरोपियन यूनियन के दबाव के बावजूद यूक्रेन युद्ध में रूस की निंदा नहीं की. इमरान खान ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की प्रशांसा कर सेना और देश के लोगों को संदेश देते हुए एक नाया नारा दिया है : "एब्सोल्यूट नॉट". माना जा रहा है कि अमेरिकी असर और नियंत्रण के खिलाफ यह नारा पीटीआई ने दिया है. इसका एक बड़ा कारण बाइडन की उपेक्षा भी है जिन्होंने राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से इमरान खान को एक भी बार शिष्टाचार कॉल करना जरूरी नहीं समझा.
पाकिस्तान के जिओ टीवी की खबर के अनुसार इस समय इमरान खान के पक्ष में पांच दलों के 164 सदस्य ही दिख रहे हैं, जिसमें 155 इमरान खान की पार्टी तहरीक ए इंसाफ के हैं. इसके भी कम से कम 12 सदस्य असंतुष्ट हैं और वे इमरान खान की अपील और नोटिस के बावजूद साथ देते प्रतीत नहीं हो रहे. इस समय विपक्ष के साथ 177 सदस्य दिख रहे हैं. जिसमें पीटीआई से विद्रोह करते दिख रहे 12 सदस्य शामिल नहीं हैं. महंगाई के कारण तेजी से हुए वोटरों के मोहभंग, सेना और नौकरशाही ने मिल कर इमरान खान के लिए माहौल विपरीत बना दिया है. लेकिन इमरान खान को जानने वाले मानते हैं कि उनकी सरकार गिर सकती है, लेकिन राजनीति में उनके प्रभाव को कम कर नहीं देखा जा सकता.
विपक्ष भी जानता है कि इमरान एक बार फिर फाइटबैक करने का भरपूर प्रयास करेंगे. 27 मार्च की इस्लामाबाद परेड रैली की उमड़ी भीड़ बताती है कि इमरान को वोटरों के एक तबके का समर्थन हासिल है. नरेंद्र मोदी की कल्याणकारी योजनाओं की तरह इमरान ने भी अहसास जैसा कार्यक्रम चलाया और सीधे गरीबों को पैसा मुहैया करा कर एक समर्थक तबका तैयार कर लिया है.
सवाल यह नहीं है कि सत्ता में इमरान के बाद शहबाज शरीफ आ जायेंगे या कोई और. मूल नैरेटिव यह है कि सेना लोकतंत्र में कौन प्रधान होगा, कब तक निर्धारित करती रहेगी. सैन्य शासन के दौर से बांग्लादेश भी गुजरा, लेकिन लोकतंत्र की वापसी के बाद सेना का राजनैतिक रसूख खत्म हो चुका है और वह सरकार के अधीन काम करने लगी. दक्षिण एशिया में केवल पाकिस्तान ही एक ऐसा देश है, जिसकी सेना की राजनैतिक महत्वाकांक्षा राजनैतिक स्थिरता की राह की सबसे बड़ी बाधा है.
पाक सेना राजनैतिक नियंत्रण को नकारती रही है. उससे टकराने की एक मामूली कोशिश के कारण भी नवाज शरीफ को सत्ता गंवानी पड़ी और इमरान खान ने भी सेना के एक फैसले को मानने में देरी की, जिसका नतीजा उन्हें झेलना पड़ रहा है. आइएसआई चीफ में इमरान अपनी पसंद के जनरल को बैठा नहीं सके, क्योंकि सेना नेतृत्व ने उसका जोरदार विरोध किया. इसी के बाद सेना और इमरान के रिश्तो में न खत्म होने वाली खटास पैदा हो गयी.
लोकतंत्र में सिर्फ जुल्फिकार अली भुट्टो ही एकमात्र पाकिस्तानी शासक हुए, जिन्होंने सेना की कभी खास सुनी नहीं. नतीजा यह हुआ कि जिस जिया उल हक को उन्होंने जूनियर होने के बावजूद सेनाध्यक्ष बनाया, उन्होंने ही न केवल तख्तापलट किया, बल्कि भुट्टो को फांसी दिलवा दिया.
इमरान के बाद के पाक लोकतंत्र में अस्थिरता के बने रहने का अंदेशा है. पाक में आंतकवाद के पसरने और अराजकता की संभावना भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती. राजनैतिक अस्थिरता जितना लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है, उससे कहीं ज्यादा दक्षिण एशिया के देशों के लिए भी.