कैग के सवाल
हिमाचल में विभागीय अनुमतियां खास तौर पर वन विभाग के कारण विकास की परियोजनाएं कई बार शिकार हो जाती हैं
By: divyahimachal
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट का विधानसभा सत्र के अंतिम पहर में पदार्पण, अपनी कोख में कई सवालों को जन्म दे रहा है। अपव्यय के घने और काले सायों के नीचे फिजूलखर्ची का आलम यह कि छात्रों को मुफ्त वर्दी प्रदान करने की रिवायत अपने साथ ऐसी सुस्ती को भी जन्म देती है, जो पौने दो करोड़ का अनियमित व्यय ओढ़ लेती है। प्रदेश में ट्रॉमा सेंटर बनाने की तात्कालिक आवश्यकताओं को जिस तरह नजरअंदाज करते हुए आबंटित धनराशि भी अपना अवमूल्यन कर लेती है या 7.81 करोड़ अगर तीस से 57 महीने बेकार पड़े रहें, तो यह सारी व्यवस्था के लिए लज्जित होने का प्रमाण है। लिहाजा पांच अस्पतालों में बनने जा रहे ट्रॅामा सेंटर अभी भी अधूरी घोषणाओं के कंकाल मात्र ही हैं। फिन्ना सिंह नहर परियोजना की शुरुआत जिस वित्तीय अनियमितता का आचरण पाल रही है, वहां ठेकेदारी प्रथा के आगोश में कई भ्रांतियां और विषमताएं पल रही हैं। कहीं वन निगम श्रामिकों को अधिक भुगतान कर रहा है, तो कहीं लोक निर्माण विभाग अधूरे सड़क निर्माण का परितोषक वितरण करते हुए ठेकेदार के गले में 53 लाख का फायदा चुटकी में डाल देता है।
इस तरह प्रदेश कभी वर्दी की आपूर्ति में पौने दो करोड़ अधिक खर्च देता है, तो कहीं आबंटित धन पर कुंडली मार कर इसे बर्बाद कर देता है। यह सब बजटीय व आर्थिक व्यवस्था की एक सार्वजनिक तौहीन है और जहां बजटीय अनुमानों से कहीं अधिक राजस्व व्यय के दरवाजे टूट रहे हैं। कैग ने एक तरह से फिजूल खर्ची और वित्तीय अव्यवस्था के प्रश्न तो उठाए हैं, साथ ही यह इशारा भी किया है कि विकास की राह पर किस तरह की लापरवाही जारी है। आश्चर्य यह कि जनता की जरूरतों पर भी धन के प्रति अनुशासनहीनता का साम्राज्य निरंतर बढ़ रहा है और यह एक डिजाइन की तरह अधूरी परियोजनाओं को अभिशप्त कर रहा है। अफसोस तो यह कि सरकार का किरदार अगर पांच ट्रॉमा केंद्रों की स्थापना नहीं कर पा रहा, तो सारा तामझाम क्यों है। दुर्भाग्यवश विभागीय तालमेल के गटर इतने बढ़ गए हैं कि स्वीकृत धनराशि भी इनके भीतर समा जाती है। हिमाचल में वित्तीय अनियमितताओं के लिए कार्यप्रणाली, विभागीय समन्वय की कमी, क्षेत्रवाद, राजनीतिक दबाव और दीर्घकालीन योजनाओं के अभाव के कारण बढ़ रहा है। सरकारें बदलते ही पिछले शासन के सारे इंतजाम ढीले पड़ जाते हैं या निर्माण कार्य बाधित कर दिए जाते हैं, जिससे पूरी परियोजनाओं के उद्देश्य और लागत के भंवर बढ़ जाते हैं।
हिमाचल में विभागीय अनुमतियां खास तौर पर वन विभाग के कारण विकास की परियोजनाएं कई बार शिकार हो जाती हैं या इनकी लागत बढ़ाने में यह महकमा अपनी प्रतिकूल भूमिका का सबूत बन जाता है। हिमाचल में भू अधिग्रहण तथा वन विभाग से अनापत्तियां हासिल करने की समयबद्ध प्रणाली नहीं बनती, तो वित्तीय संसाधनों की हजामत तय है। हिमाचल का विकास मॉडल केंद्र की योजनाओं-परियोजनाओं का अंधाधुंध अनुसरण है और इसलिए हर सरकार धन के इस्तेमाल पर तवज्जो दे रही है, न कि इसके सदुपयोग से जनता की जरूरतें पूरी करने का रास्ता खोज रही है। हिमाचल की राजनीतिक मशीनरी के लाभार्थी ठेकेदारी प्रथा के नगीने तब बन जाते हैं जब सत्ता में अपना हक मजबूत होता है। कैग के प्रश्न अगर ठेकेदारी प्रथा की तहों का अध्ययन करें, तो मालूम हो जाएगा कि सरकारी धन की परत दर परत कितनी अनियमितताएं हैं। आश्चर्य यह कि हर बार कैग की रिपोर्ट अपने अन्वेषण और तथ्यों के आधार पर हमारी वित्तीय व्यवस्था पर टिप्पणी करती है, लेकिन इससे सबक लेते हुए कार्यशैली में बदलाव नहीं आता। विकास को मुट्ठी में भरने की कोशिश और सत्ता के प्रभाव को समेटने के लिए कमोबेश हर सरकार केवल विकास की तख्ती पर अपने हस्ताक्षर करते हुए भूल जाती है कि उधार की व्यवस्था में ये तमगे भी गिरवी हो जाएंगे। ठेकेदारी प्रथा में सुधार के अलावा वन विभाग की मिलकीयत में पनपती अड़चनें मिटाने के लिए सर्वप्रथम इस विभाग का अस्तित्व समेटना चाहिए। जिस दिन वन विभाग के कार्यालयों तथा बस्तियों को शहरी इलाकों से हटा कर जंगलों में स्थानांतरति किया जाएगा, सभी को मालूम हो जाएगा कि राज्य की विकास प्राथमिकताओं में रोड़ा अटकाने का दुष्परिणाम क्या होता है।