भारतीय मजदूर संघ अपनी सियासत के हर मोड़ पर भाजपा के हाथ मजबूत करता है, तो क्यों अपनी ही सरकार की नीतियों पर शक कर रहा है। क्या जेसीसी बैठक में पकी खिचड़ी को चंद लोग डकार गए या कर्मचारियों के हितों की बात मुकम्मल नहीं हुई। पुलिस कर्मियों के पे बैंड को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय तक पहुंचा असंतोष को हद के भीतर समझें या बाहर होते कलेश की खबर लें। दरअसल कर्मचारियों के मसले ऊंट की तरह हैं। न तो यह पता चलता है कि ये कब किस करवट बैठेंगे और न ही यह कि इनके मुंह में कितना जीरा डाला जाए। भले ही राज्य की बजटीय व्यवस्था की खाल उतर रही है या जेसीसी की ढाल के पीछे सरकार का ओहदा छिप रहा है, लेकिन कर्मचारी मजमूनांे के आघात से कई विडंबनाएं खड़ी हो रही हैं। यह एक ऐसा पिटारा बनता जा रहा है जिसमें कोई न कोई आक्रोश मुकाबले पर उतर आ रहा है। जेबीटी प्रशिक्षुओं का आंदोलन निर्मोही है या उनके खिलाफ बीएड को मिली पद की छूट गुनहगार है। कॉडर की भिड़ंत क्यों पैदा की गई या अदालती फैसलों के गमछे से कर्मचारी वर्ग का पसीना नहीं पोंछा जा रहा है। कॉडर जिस राजनीति की सुख-सुविधा बनकर आए, वे अब आफत की पुडि़या बनते जा रहे हैं।
यहां आम के दाम तो मिल नहीं रहे, बल्कि कॉडर की गुठलियां इतनी हो गई हैं कि न निगलते बनती और न ही उगलते। एचआरटीसी में नियुक्त हुए पीसमील वर्कर को ही लें, तो भर्ती प्रक्रिया के नगीने अब सरकार की अंगुलियां दबा रहे हैं। घाटे की सरकारी बसों की औकात दो टके की करने के लिए पहले ही अधिकारी कम नहीं, जो अब पीसमील वर्कर के आंदोलन ने सारी व्यवस्था को दलदल बना दिया है। कॉडर के बीच पैदा किए गए कॉडर तक भी गनीमत थी, लेकिन अब तो आउटसोर्स कर्मी भी खुद के ऊपर सरकारी आवरण की हिफाजत और फीती लगवाना चाहते हैं और अगर ऐसा करना पड़ता है, तो प्रदेश की वित्तीय व्यवस्था तो राम के भरोसे ही रहेगी। आश्चर्य यह कि कर्मचारी नीतियां इतनी नाजुक क्यों हैं कि कमोबेश हर सरकार अपनी डुगडुगी ही गिरवी रख देती है।
कर्मचारी आशीर्वाद पाने की सियासी चाहत का कोई मुकाम हो ही नहीं सकता। बेहतर होता अगर सरकार आरंभिक वर्षों में ही कॉडर विसंगतियों, नियुक्तियों की शर्तांे और पदोन्नतियों की असमानताओं को मिटाने तथा न्यायपद्धति के तहत कर्मचारी वर्ग के बीच के भेद मिटाने के लिए आयोग गठित करके सिफारिशों पर अमल करती। अब तो यह हाल है कि लाभ के पन्ने संभाले नहीं जा रहे, जबकि छूट गए मसलों का गुस्सा बिखर व बिगड़ रहा है। यह सरकार और हिमाचल की परंपराओं के लिए दुरुस्त नहीं कि कर्मचारी आक्रोश पीठ पर सवार रहे। आज जिस वजह से जेसीसी बैठक के अरमान पूरे नहीं हो रहे या सरकार की नेकनीयत व दरियादिली से खजाना सूख रहा है, उसे समझना होगा। विभिन्न कॉडरों से निकलते कर्मचारी नेता भले ही सरकार के पक्ष में हों, लेकिन सरकारी कार्यसंस्कृति के बीच कर्मचारी संघर्ष की प्रवृत्ति बहुत कुछ घायल कर रही है। कर्मचारी रिश्तों को पुख्ता करने के लिए चुनाव की दो गज जमीन नहीं, कर्मचारियों को एक समान के कॉडर के तहत जमीन बनाने की कहीं अधिक आवश्यकता है।
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