हिंदुत्व को बार-बार निशाना बनाकर उदारवादियों ने हिंदुओं के बीच आत्मरक्षा की भावना पैदा की
इस कॉलम को लिखते वक्त राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजों, जिन्हें 2024 के आम चुनावों के लिए एक तरह से सेमीफाइनल के तौर पर देखा जा रहा है
आनंद नीलकांतन।
इस कॉलम को लिखते वक्त राज्य विधानसभा चुनावों (Assembly Elections) के नतीजों, जिन्हें 2024 के आम चुनावों (General Elections) के लिए एक तरह से सेमीफाइनल के तौर पर देखा जा रहा है, पर कई तरह के विश्लेषण जारी हैं. उम्मीद से अलग कुछ भी नहीं है और आश्चर्य की बात केवल यह है कि कांग्रेस (Congress) पार्टी अभी भी कुछ सीटें हासिल करने में कामयाब रही है. देश की सबसे पुरानी पार्टी बीते कुछ वर्षों से आईसीयू में है और अभी भी इसकी स्थिति उस मरीज की तरह है जो प्राण त्यागने के लिए तैयार नहीं है.
इस पार्टी ने बीते सालों में मिली एक के बाद एक हार से कुछ नहीं सिखा है. पंजाब में इसने क्रिकेटर से दलबदलू, दलबदलू से कॉमेडियन, कॉमेडियन से किचन कैबिनेट के चाटुकार बने व्यक्ति के लिए अपने लोकप्रिय नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया और आखिरकार अपना दूसरा राज्य आम आदमी पार्टी को सौंप दिया. ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस दूसरी या तीसरी पसंद बनकर रह गई है और इसे कुछ वोट तभी मिले जब लोगों को विपक्षी पार्टी का कोई बेहतर विकल्प नहीं मिला. ऐसे में यह उन चंद लोगों का वोट हासिल कर पाई जो अभी भी इस पार्टी पर भरोसा करते हैं.
पुराने तौर तरीके बदलने को तैयार नहीं
इन सबके बावजूद, कांग्रेस पार्टी अपने कामकाज के पुराने तौर तरीकों को बदलने के लिए तैयार नहीं है. यह ऐसे नेता को, भले ही वह वोटर बटोरने में सक्षम हो, तुरंत बाहर का रास्ता दिखाती है जो भविष्य में एक वंश के लिए खतरा साबित हो सकता है. एक बेजान संगठन, खाली तिजोरी और अकल्पनीय नेतृत्व उस कंगाल जमींदार की तरह नजर आता है, जो अपने एक या दो भरोसेमंद नौकरों के साथ अपने प्राचीन गौरव की याद में जीवन बिताता है.
आप का दिल्ली से बाहर राज्य पर कब्जा
आप पार्टी, दिल्ली के बाहर एक और राज्य में कब्जा जमाने में कामयाब रही. आम आदमी पार्टी, ठीक उसी तरह की पार्टी है जैसा वाजपेयी के दौर में बीजेपी हुआ करती थी, मध्यमार्गी – जिसका झुकाव दक्षिणपंथी हिंदुत्व की ओर है. हालांकि, हिंदुओं में भी एक बड़ा तबका ऐसा है जो आज के बीजेपी की धुर-दक्षिणपंथी राजनीति को लेकर सहज नहीं. आम आदमी पार्टी ने इन्हीं लोगों की पहचान कर ली और इन पर ध्यान दिया. एक वक्त ऐसा था, जब कांग्रेस सफलतापूर्वक सॉफ्ट हिंदू कार्ड खेल लेती थी और आसानी से अल्पसंख्यक वोट हासिल कर लेती थी और अजेय बनी रहती थी.
दूसरी पार्टियों का अल्पसंख्यक वोट पर फोकस
कांग्रेस के लिए यह दुर्भाग्यजनक रहा कि दूसरी पार्टियों ने भी अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए इस आसान बाजार (अल्पसंख्यक वोट) पर फोकस किया. कई पार्टियां अब इस 16 फीसदी अल्पसंख्यक वोट को हासिल करने के लिए लड़ रही हैं, जिससे 84 फीसदी वोट एक पार्टी के लिए बचा रह गया है. उदाहरण के लिए वामपंथी पार्टियों को ही देख लें, जो एक समय कई राज्यों में अहम खिलाड़ी थीं.
अब नहीं बचा है उदार वामपंथ
अब किसी तरह का उदार वामपंथ नहीं बचा है और वामपंथ के लिए जो अब बचा रह गया है, वह न तो उदार है और न ही वामपंथ. यह केवल वह राजनीतिक मूवमेंट बन कर रह गया है जो अल्पसंख्यक वोट हासिल करने के लिए कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के साथ लड़ रहा है. एक समय, भारतीय राजनीति में जातिगत समीकरण अहम होते थे और मुस्लिम सबसे बड़े धड़े थे. हाशिए पर पड़े इस समुदाय की असुरक्षा की भावना को भड़काकर और इन्हें कुछ छोटे-मोटे लालच देकर फायदेमंद नतीजे हासिल कर लिए जाते थे.
पुराने अंदाज में खेल रहीं विपक्षी पार्टी
बीजेपी, बहुसंख्यकों को उतना ही सांप्रदायिक बनाने में कामयाब रही जितना कि अल्पसंख्यक हैं और अब जातिगत समीकरण ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है, जो कि नतीजों से जाहिर भी होते हैं. दुर्भाग्य से, कई विपक्षी पार्टियां समय के फेर में फंस गई हैं और पुराने अंदाज में वे खेल खेल रही हैं, या उन्हें यह नहीं पता या फिर वे यह मानने से इनकार कर रही हैं कि खेल के नियम और खेल मैदान दोनों बदल चुके हैं.
बीजेपी उदारवादियों के तौर पर दर्शाने में सफल
ऐसा देश जहां 84 फीसदी आबादी हिंदू बहुसंख्यकों की है, वहां बीजेपी उन्हें एक हिंदू-विरोधी "उदारवादियों" के तौर पर दर्शाने में सफल रही है. यूनिवर्सिटी और हाई-क्लास क्लबों के गलियारों में भारतीयता या हिंदुत्व को कोसना भले ही अच्छा लग सकता है, लेकिन इससे आपको वोट नहीं मिलेंगे. सामान्य हिंदू रीति-रिवाजों को लगातार निशाना बनाते हुए, उदारवादियों ने औसत हिंदुओं की मानसिकता को ऐसा बना दिया जिससे वे अपने रिवाजों को बचाने में जुट गए, और इससे दक्षिण-पंथियों को फलने-फूलने के लिए एक बेहतर मौका मिल गया.
बीजेपी की विकल्प जातिगत पार्टियां
ज्यादातर राज्यों में, बीजेपी का विकल्प ऐसी पार्टियां ही रह गई हैं, जो घोर जातिगत या सांप्रदायिक राजनीति करती हैं. ये वो पार्टियां हैं जो धर्मनिरपेक्षता के घोड़े पर सवार हैं. लेकिन, वोटर भी इन्हें अलग तरीके से देखते हैं. वे जानते हैं कि धार्मिक भावनाओं का शोषण करने वाले चुनावी अभियान भी जातिगत, नस्लीय और भाषाई भावनाओं पर आधारित अभियानों से कम बुरे नहीं होते और ये राजनीतिज्ञ ही हैं जो इस तरह की तिकमड़ बाजी करते हैं. मतदाता, बेवकूफ नहीं होते.
यूपी में बीजेपी को नुकसान नहीं
भारत के महानगरों में एयर-कंडीशन ऑफिस में बैठकर, अंग्रेजी बोलने वाले लोग धर्मनिरपेक्षता के पतन का दुखड़ा रो सकते हैं. ऐसी सरकार जिसका बीते पांच वर्षों का प्रदर्शन भले ही उतार-चढ़ाव भरा रहा हो उसे दोबारा चुनने के लिए ये लोग यूपी के पिछड़ेपन को दोषी ठहरा सकते हैं. उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य रहा, जिसने कोविड का सबसे खराब प्रबंधन किया, वहां किसानों के बीच व्यापक स्तर पर नाराजगी थी और बीते कुछ समय से आवारा पशुओं का मुद्दा भी समस्या बना हुआ है, ये तमाम कमियां भी बीजेपी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा पाईं. उत्तर प्रदेश, देश के उन राज्यों में शामिल है जहां साक्षरता की दर सबसे कम है.
विकास मानकों में निचले पायदान पर यूपी
नीति आयोग के विकास मानकों में यह निचले पायदान पर है, लेकिन शायद नेता चुनते वक्त मतदाता सियासी तौर पर विवेकशील हो जाते हैं. इन्होंने बीजेपी के लिए जो फैसला दिया है, वह इनके राजनीतिक समझ की कमी को नहीं दर्शाता, बल्कि इनके समर्थन को दिखाता है. योगी की दुस्साहसिक चेतावनी के बावजूद कि 'गलत पार्टियों' को वोट देने से यूपी का हाल केरल या बंगाल जैसा हो जाएगा, यूपी के मतदाता इतने मूर्ख नहीं हैं कि वे यह न समझ पाएं कि उनका जीवन स्तर केरल के जैसा नहीं है. ऐतिहासिक और भौगोलिक कारणों से केरल का मानव विकास सूचकांक शानदार है और ऐसा कुछ नहीं है जिसे रातोंरात हासिल किया गया हो. इसी तरह, यूपी के पिछड़ेपन की वजह मौजूदा सरकार नहीं है. इसकी वजह, इसकी ऐतिहासिक और भौगोलिक विरासत है.
स्थिति पहले की सरकारों से बेहतर
यूपी के मतदाताओं ने, योगी कार्यकाल की तुलना, उनके पहले के पांच वर्षों से की. इसमें उन्होंने यह पाया कि उनकी स्थिति पहले की सरकारों से बेहतर रही. यूपी के वोटरों ने अपनी सरकार को महामारी के दौर में हुए कष्ट के लिए माफ नहीं किया है और बीजेपी की कम हुई सीटें इस बात का सबूत हैं. सवाल यह है कि विपक्षी पार्टियों ने बीजेपी से बेहतर कौन-सा वादा किया? यूपी में बीजेपी मजूबत विपक्षी पार्टी, समाजवादी पार्टी ने विकास के लिए कौन-सा ऐसा मॉडल पेश किया, जिससे वोटर प्रेरित होकर अपनी धार्मिक पहचान को भूल जाते और एसपी के शासनकाल में हुए अपराधों को भूलकर उन्हें वोट दे देते? यूपी के एक औसत मतदाता को कांग्रेस पर दोबारा भरोसा क्यों करना चाहिए, जिसके हाथों में कई दशकों तक यूपी का शासन था और फिर भी जो इसके पिछड़ेपन को दूर नहीं कर पाई?
राजनीति का तमिलनाडु जैसा स्टाइल
अंग्रेजी में बकबक करने वाला वर्ग भले ही शौचालय निर्माण, राशन, बैंक खातों में आने वाले कुछ राशियों का मजाक उड़ा ले, लेकिन ऐसा समाज जिसे सात दशकों से कुछ न मिला हो, उसका भरोसा जीतने के लिए यह काफी है. याद रखें कि यह राजनीति का वही स्टाइल था जिसने तमिलनाडु में द्रविड़ियन पार्टियों को सफल बनाया. उन्होंने मुफ्त में कई चीजें दीं और तमिल गौरव की बात पर जोर दिया. इसी तरह केरल में LDF दूसरी बार इसलिए सत्ता में आ पाई क्योंकि इसने गरीबों को राशन किट के साथ अन्य चीजें दी.
राज्य पर उंगली उठाना पाखंड
जब दो अपेक्षाकृत समृद्ध राज्यों ने उत्साह के साथ इस तरह की राजनीति की है तो देश के सबसे अनपढ़ और गरीब लोगों वाले राज्य पर उंगली उठाना एक तरह का पाखंड है. यूपी के वोटर, केरल या तमिलनाडु के लोगों के रास्ते पर ही चले हैं, जिन्होंने उन्हीं पार्टियों को वोट दिया, जिन्होंने मुफ्त में विभिन्न तरह की सुविधाएं दीं. यदि राशन और लैपटॉप के साथ बोनस के तौर पर तमिल संस्कृति का गौरव उपलब्ध कराया गया, ठीक उसी तरह मुफ्त राशन और गैस सिलेंडर के साथ हिंदुत्व के गौरव को बतौर बोनस पेश किया गया.
2024 की भविष्यवाणी हैं ये नतीजे
सेमीफाइनल के यह नतीजे 2024 की भविष्यवाणी करते हैं. भले ही शहरी बातूनी वर्ग इसे पसंद करे या न करे, बीजेपी और इसके अजेय चुनावी मशीनरी का भविष्य में कोई दूसरा भरोसेमंद विकल्प नहीं है. जनता बीजेपी पर उतना अविश्वास नहीं करती, जितना बुद्धिजीवी वर्ग चाहता है. कांग्रेस में अब जान नहीं बची है और जितनी जल्दी उसके वेंटिलेटर से प्लग खींच लिया जाए, हमारे लोकतंत्र और देश के लिए उतना ही अच्छा होगा. यदि कांग्रेस पार्टी में आत्म-सम्मान वाले कुछ नेता बचे हैं तो उन्हें इस डूबते जहाज से कूद जाना चाहिए और एक नई राजनीतिक पार्टी बनानी चाहिए.
पार्टी के एकाधिकार की ओर देश
देश एक पार्टी के एकाधिकार की ओर बढ़ रहा है. हम सभी उस अंधकार युग से वाकिफ हैं, जब 'इंदिरा ही इंडिया थीं और इंडिया इंदिरा था'. हमने तब आपातकाल, लाइसेंस राज, अलगाववादी आंदोलन और सैकड़ों बागवतें देखीं. यहां तक कि बीजेपी भी नहीं चाहेगी कि ऐसा कुछ हो, लेकिन लड़ने के लिए कोई विपक्ष नहीं होगा तो इस पार्टी में ही आंतरिक विभाजन हो जाएगा. यह मानव स्वभाव है. एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष होना जरूरी है तो फिर इस खाली जगह को कौन भरेगा?
(आनंद नीलकांतन एक भारतीय लेखक, स्तंभकार, स्क्रीन राइटर और वक्ता हैं)