मुफ्तखोरी का बोझ

मुफ्तखोरी की संस्कृति एक प्रतिकूल परंपरा है

Update: 2022-04-21 18:14 GMT

मुफ्तखोरी की संस्कृति एक प्रतिकूल परंपरा है, जो न केवल राजनीति, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचाती है। 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष अर्थशास्त्री एन के सिंह ने मुफ्त उपहार योजनाओं को लेकर कुछ वाजिब सवाल उठाए हैं। साथ ही, यह भी कहा है कि अभी मुफ्त योजनाओं के अर्थ में बहुत अस्पष्टता है। वाकई हमें यह देखना चाहिए कि कौन-सी वस्तु मुफ्त देने लायक है और कौन-सी वस्तु देने लायक नहीं है। मिसाल के लिए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत और व्यापक करना, रोजगार गारंटी योजनाएं, शिक्षा के लिए सहायता और स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से महामारी के दौरान परिव्यय बढ़ाना सही है। पूरी दुनिया में ऐसे व्यय को न्यायपूर्ण माना जाता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दुनिया में गरीबों या अभावग्रस्त लोगों की संख्या कम से कम एक चौथाई है, उनकी आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के प्रबंध करना हर सरकार की जिम्मेदारी है। कोरोना के समय भारत में ही 80 करोड़ लोगों तक मुफ्त अनाज पहुंचाने की कोशिश हुई, उसकी निंदा भला कौन कर सकता है? कई बार लोगों को मुफ्त सेवाएं या वस्तुएं देना जरूरी हो जाता है। ऐसे में, एन के सिंह का इशारा बिल्कुल सही है कि जरूरी और गैर-जरूरी के बीच हमें फर्क करना चाहिए

सरकारों को यह सोचना ही चाहिए कि मुफ्त योजनाएं लंबे समय में अर्थव्यवस्था, जीवन की गुणवत्ता और सामाजिक सामंजस्य के लिए कितनी महंगी पड़ेंगी। एन के सिंह ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के वार्षिक दिवस के अवसर पर साफ कहा है कि मुफ्त योजनाओं की प्रतिस्पद्र्धी राजनीति से हमें डरना चाहिए। हमें आर्थिक विकास की उच्च दर हासिल करने की राह पर चलना चाहिए। आज दक्षता की दौड़ ही संपन्नता की दौड़ है। ऐसी योजनाएं अगर बढ़ती गईं, तो उन राज्यों का क्या होगा, जिनकी अर्थव्यवस्था पहले से ही बहुत दबाव में है। सरकारों पर जो कर्ज है, उसे भी देखना चाहिए। वस्तुत: कर्ज लेकर मुफ्त योजनाओं के दम पर राजनीति करना एक बड़े वर्ग के साथ अन्याय भी है। अनुमान के अनुसार, पंजाब में मुफ्त योजनाओं या उपहारों के वादे को लागू करने में लगभग 17,000 करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं। इससे जीएसडीपी के तीन प्रतिशत के बराबर का अतिरिक्त भार पडे़गा। पंजाब के सकल घरेलू उत्पाद में पचास प्रतिशत से ज्यादा तो ऋण है, मतलब मुफ्त योजनाओं से पंजाब पर भार बढ़ना तय है।
उन्होंने एक और उपयोगी मिसाल दी है। राजस्थान की सरकार ने घोषणा की है कि वह पुरानी पेंशन योजना को लागू करेगी। यह निर्णय प्रतिगामी है, क्योंकि पुरानी पेंशन योजना से पीछा छुड़ाना इस तथ्य पर आधारित था कि वह योजना समानता पर आधारित नहीं थी। राजस्थान का पेंशन एवं वेतन व्यय उसके कर और गैर-कर राजस्व का करीब 56 प्रतिशत है, यानी उसकी छह प्रतिशत सिविल सेवक आबादी को राज्य के 56 प्रतिशत राजस्व का लाभ मिलता है। यह समानता और नैतिकता के सिद्धांत के भी विपरीत है। यह सही है कि सरकारों की व्यय प्राथमिकताओं की वजह से विकास व विकास की योजनाओं पर असर पड़ रहा है। मुफ्त सुविधाओं से कुशलता और प्रतिस्पद्र्धा, दोनों पर नकारात्मक असर पड़ता है। वह मुफ्तखोरी के अर्थशास्त्र को निरपवाद रूप से गलत बताते हुए सुधार की पैरोकारी करते हैं। मुफ्त उपहार की राजनीति व उसके अर्थशास्त्र, दोनों में गहरी खामियां हैं। यह दौड़ नीचे की ओर है, जिससे बचना चाहिए।

क्रेडिट बाय हिन्दुस्तान

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