मौजूदा दौर में जनमत निर्माण में पश्चिमी मीडिया के वर्चस्व को तोड़ना अब और जरूरी हो गया है

इन दिनों रूस और यूक्रेन के बीच यूद्ध चल रहा है

Update: 2022-03-06 16:24 GMT
मुकुल श्रीवास्तव। इन दिनों रूस और यूक्रेन के बीच यूद्ध चल रहा है। सारी दुनिया की निगाहें इन दोनों देशों के ऊपर लगी हुई हैैं। इसके अलावा साइबर मैदान में भी एक लड़ाई हो रही है, जिसे हम सूचना युद्ध के नाम से जानते हैं। जहां इंटरनेट और मीडिया कंपनियों के सहारे छवि निर्माण की होड़ मची है। एक तरफ हैैं अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश, जो मानते हैैं कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन सारी दुनिया के लिए खतरा हैं। दूसरी ओर रूस के राष्ट्रपति सारी दुनिया को यह समझाने में लगे हैं कि रूस का गौरव सर्वोपरि है। किसी युद्ध में जब हम किसी देश के बारे में राय बनाते हैं तो उसमें मीडिया से मिली सूचनाओं की बड़ी भूमिका होती है। हालांकि युद्ध अपने आप में खुद समस्या है। इससे किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, लेकिन इंटरनेट मीडिया के इस दौर में जनमत निर्माण का काम सिर्फ कुछ जनमत निर्माताओं यानी मीडिया के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है, क्योंकि वे अपना हित साधने वाली बातें ही जनता तक पहुंचाते हैैं। इससे दूसरे पक्ष की आवाज लोगों तक नहीं पहुंच पाती। शायद यही वजह है कि रूस ने अमेरिकी कंपनी मेटा (फेसबुक) के बाद ट्विटर पर भी रोक लगा दी है। रूसी सरकार का आरोप है कि दोनों साइट उसके खिलाफ दुष्प्रचार कर रही हैं। फेसबुक ने रूस की स्थानीय मीडिया पर यूक्रेन में उसकी सैन्य कार्रवाई पर विज्ञापन चलाने को लेकर रोक लगाई थी। जवाब में फेसबुक ने पूरे यूरोपीय संघ में रूसी राज्य मीडिया आउटलेट आरटी और स्पुतनिक को ब्लाक किया है। गूगल ने भी रशिया टुडे और स्पुतनिक के यूट्यूब चैनल को ब्लाक कर दिया है।
अमेरिका का इतिहास ही ऐसी नीतियों का रहा है, जो उसके व्यावसायिक हितों की पूर्ति करें। वह ऐसी संस्थाओं का संरक्षण करता है, जो उसके हितों को साधने में मददगार बने। वर्ष 2003 में अमेरिकी नेतृत्व में गठबंधन देशों की सेनाओं ने इराक पर हमला किया था। तब कहा गया था कि इराक में जनसंहार करने वाले हथियारों का जखीरा है। बाद में आईं सूचनाओं से साबित हुआ कि इराक के पास ऐसे हथियार नहीं थे। हमला करने के लिए इस मनगढ़ंत कहानी की आड़ ली गई। तब इंटरनेट मीडिया का जन्म नहीं हुआ था। सूचना का मुक्त प्रवाह पश्चिमी चश्मे से ही देखा जाता था। लिहाजा सद्दाम हुसैन का पक्ष दुनिया के सामने वही आया, जो पश्चिमी मीडिया ने दिखाया। इंटरनेट ने जनमत निर्माण के इस खेल को आज भले ही पलट दिया हो, लेकिन इसमें इसका व्यावसायिक पक्ष भी महत्वपूर्ण हो गया है।
एक दूसरा पहलू विकिलीक्स से जुड़ा है। विकिलीक्स का जन्म ही इंटरनेट की ताकत और विस्तार के कारण हुआ। इस पर सबसे बड़ी चोट अमेरिका ने ही पहुंचाई। विकिलीक्स द्वारा जारी किए गए सैकड़ों गोपनीय कूटनीतिक संदेशों से सारी दुनिया अमेरिका के दोहरे रवैये को जान गई। इस खुलासे से इंटरनेट मीडिया को नया आयाम मिला। आमतौर पर समाचार पोर्टल टीवी और अखबार की सामग्री से खबरें बनाते थे, पर पहली बार किसी वेबसाइट से आई सामग्री टीवी और अखबारों की खबरों का आधार बनी। आज अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन समेत तमाम देश रूस और उसके सहयोगियों पर आर्थिक प्रतिबंध लगा रहे हैं। उसी के साथ जनमत बनाने का खेल भी चल रहा है। शुक्र है कि मुक्त इंटरनेट मीडिया हमारे बीच मौजूद है, जो सबकी बातें प्रमुखता से लोगों के सामने रख रहा है। वैसे भी कूटनीति में कोई भी फैसले दो दूनी चार नहीं होते और कोई भी पक्ष पूरी तरह से दोषी या निर्दोष नहीं होता है। यह वर्ष 2003 नहीं है, जब दुनिया के कुछ ताकतवर राष्ट्रों ने एक अनाम रिपोर्ट पर एक देश को युद्ध में झोंक दिया था। आज सूचनाओं के प्रसार में इंटरनेट की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है।
पश्चिमी मीडिया के इस नजरिये का शिकार भारत भी रहा है। साल 2012 में असम में उत्पन्न समस्या और भारत के कई शहरों से पूर्वोत्तर के निवासियों का पलायन हुआ। सरकार ने इसके लिए इंटरनेट मीडिया पर फैली अफवाहों और भड़काऊ तस्वीरों को दोषी माना। कार्रवाई करते हुए 245 वेबसाइटों को ब्लाक कर दिया। सरकार के इस फैसले के बाद अमेरिकी विदेश मंत्रालय की तत्कालीन प्रवक्ता ने बयान दिया कि अमेरिका इंटरनेट की आजादी के पक्ष में है। भारत सरकार मानवाधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जारी रखे।
भारत को मानवाधिकार और इंटरनेट की आजादी का पाठ पढ़ाने वाले इस बयान को जरा इस तथ्य के संदर्भ में पढ़ें तो एक बार फिर अमेरिका का व्यावसायिक नजरिया स्पष्ट हो जाएगा। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था विकास केंद्रित हुई है। इसकी गति को बढ़ाने में इंटरनेट की बड़ी भूमिका है। इंटरनेट के अस्तित्व में आने के बाद से इस पर अमेरिकी सरकार, कंपनियों और प्रयोगकर्ताओं का आधिपत्य रहा है, लेकिन अब इसमें तेजी से बदलाव आ रहा है, जिसका केंद्र भारत, रूस, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन और ब्राजील जैसे देश हैं। फेसबुक को अन्य देशों की क्षेत्रीय सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों जैसे जापान की मिक्सी, रूस में वोकांते से कड़ी टक्कर मिल रही है। सूचनाओं के प्रसार के साथ-साथ ये लोगों के व्यावसायिक रूप से भी प्रभावित कर रही हैैं। जैसे फेसबुक का मतलब महज सोशल नेटवर्किंग नहीं है, बल्कि यह विज्ञापन, मीडिया और नए रोजगार के निर्माण से भी संबंधित है। जाहिर है सूचना क्रांति ने लोगों के मूलभूत अधिकारों और मानवाधिकारों को एक बड़े बाजार में भी तब्दील कर दिया है। जनमत निर्माण इससे भी प्रभावित हो रहा है।
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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