किताबों का कोना

हम ज्यों-ज्यों आधुनिक हुए है, त्यों-त्यों तकनीकी के गुलाम होते चले जा रहे हैं। नतीजतन, पुस्तकों से लगातार दूरी बढ़ती चली जा रही है। शिक्षा सबके लिए सुलभ होने का दायरा बढ़ा है, ऐसा वास्तव में होने के बजाय आभास अधिक हो रहा है कि जिस शिक्षा का आधार ही पुस्तकें रही हों

Update: 2022-11-02 06:20 GMT

रमेश चंद मीणा: हम ज्यों-ज्यों आधुनिक हुए है, त्यों-त्यों तकनीकी के गुलाम होते चले जा रहे हैं। नतीजतन, पुस्तकों से लगातार दूरी बढ़ती चली जा रही है। शिक्षा सबके लिए सुलभ होने का दायरा बढ़ा है, ऐसा वास्तव में होने के बजाय आभास अधिक हो रहा है कि जिस शिक्षा का आधार ही पुस्तकें रही हों, उनसे विद्यार्थियों की लगातार दूरी बढ़ना शिक्षाविदों के लिए बहुत अधिक चिंता का सबब है। समय के मुताबिक शिक्षा नीतियां और पाठ्यक्रम बदले जाते रहे हैं, फिर भी विद्यार्थी पुस्तक के बजाय अन्य रास्ते खोज ले रहे हैं। मसलन, नोट्स, पासबुक और 'वनवीक' शृंखला आदि के सहारे शिक्षा की वैतरणी पार किए जा रहे हैं। विद्यार्थी अगर उच्च शिक्षा बिना पुस्तकों के पास हो रहे हैं, तब वे कितना क्या सीख या ग्रहण कर पा रहे हैं? शिक्षा के गढ़ों में कैसे नागरिक गढ़े जा रहे हैं?

सच यह है कि पाठक या विद्यार्थियों को सलाहियतों, व्याख्यानों के बावजूद वे पुस्तकोन्मुखी नहीं होते हैं, क्योंकि आबोहवा लगातार पुस्तक विरोधी होती चली जा रही है। टीवी के बाद स्मार्टफोन के आने और डाटा का सहज सुलभ होने के बाद सब कुछ आनलाइन हो चला है। ऐसा लगता है कि उपभोक्ताओं को बाजार या बच्चों को स्कूल जाने की जरूरत नहीं रह गई है, न ही कर्मचारियों को कार्यालय। 'वर्क फ्राम होम' या घर से काम और मीटिंग तक आनलाइन और सारी शिक्षा वीडियो द्वारा घर बैठे संपन्न होने लगी है। ऐसे में पुस्तक कौन खोलकर पढ़ने बैठे?

यह सवाल मौजू हो चला है कि ऐसे दौर में पुस्तकें कौन पढ़ता है। जब सूचना का अंबार लगा हो, 'गूगल बाबा' हर सूचना देने के लिए बिना पन्ने खोले ही हाजिर हो जाता हो तो ऐसे में विद्यार्थी पुस्तक तक क्यों पहुंचे? पुस्तकालयों की खाक कौन छाने, जब पुस्तकों के बहुतेरे विकल्प हो चले हैं। हर विषय के आडियो-वीडियो यूट्यूब पर होना और हर शहर में कोचिंग का जाल बिछा होना, क्या ऐसे में पुस्तकें महज पुस्तकालयों की शोभा ही होकर नहीं रह जाने वाली हैं?

समय को किसी भी सूरत में पीछे नहीं लौटाया जा सकता है। यह सच है कि मनुष्य की गति बहुत बढ गई है। किसी के भी पास अतिरिक्त समय नहीं है या वे कम से कम समय और हर हाल में सफलता हासिल करना चाहते हैं। अब लंबा और सुरक्षित चलने की सोच सिरे से ही गायब हो चली है। जबकि संयम, संतोष का निरा अभाव हो चला है, ऐसे में शांति चाहते तो सब हैं, पर अभी नहीं, वह कब्र में ही नसीब हो सकेगी, क्योंकि शांति कल में चाहिए। आज तो सब हासिल करने, अधिक पैसा पाने की दौड़ में लगे हैं। ऐसे में पुस्तकों के पाठक बनने के बजाय लगातार आडियो-वीडियो की गिरफ्त में आ चुके हैं।

साहित्य में यह कहानी का समय है, उपन्यास का नहीं। यह विषय बहस का रहा है कि कविता और कहानी में पाठक किसके अधिक है? हर साल जिस तरह उपन्यास आ रहे हैं, इससे यही साबित होता है कि भले ही महाविद्यालयों में पुस्तकों के प्रति रुझान कम है, पर साहित्य की चर्चित विधा उपन्यास के पाठक आज भी बने हुए हैं। उपन्यास को वर्तमान दौर का महाकाव्य यों ही नहीं कहा गया है। इस पुस्तक विरोधी समय में भी उपन्यासों का बड़े स्तर पर छपना और पढ़ा जाना प्रमाण है कि उपन्यास के पाठक हैं। जो भी पाठक समय व समाज को गहराई में समझना चाहता है, वह आज भी खरीद कर पुस्तकें पढ़ रहे हैं।

साहित्य का पाठक होने और विद्यार्थियों के पाठक बनने में बड़ा फर्क होता है। वे शिक्षक जो 'वनवीक' शृंखला से परीक्षा पास कराते हैं और देर-सबेर वे ही जब अध्यापन करवाते हैं, तब इस दौर की पाठकहीनता के पीछे छिपी तहों और कारणों को समझा जा सकता है। ऐसे शिक्षक पुस्तकों के पाठक हुए बिना अलग से नए पाठक कैसे पैदा कर सकेंगे?

इसलिए इस समय बढ़ती पाठकों की कमी और पुस्तकों से विमुख होने की प्रक्रिया या पुस्तक के अंत के पीछे और भी बहुतेरे कारण हो सकते हैं, उनके निवारण के उपाय भी खोजे जा सकते हैं, पर बढ़ती तकनीकी, बदलती सोच और घटता संयम पुस्तकों के विपरीत हुआ जा रहा है। ऐसे में पुस्तकों का पाठक होना रेगिस्तान में नखलिस्तान का अहसास कराता है। किसी भी सार्वजनिक स्थान पर या यात्राओं में लगभग सभी लोग अपने हाथ में स्मार्टफोन लिए उसी में अपना ध्यान गड़ाए रखते हैं, मानो उसमें कोई गहरी खोज कर रहे हों। ऐसे में कभी कोई व्यक्ति हाथ में किताब लिए पढ़ता दिख जाता है तो लगता है दुनिया में कोई अजूबी चीज दृश्य से गुजर रही हो।

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