Bengal Election: ममता बनर्जी की विपक्ष से साथ आने की गुहार, हार की चिंता या नई रणनीति

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Bengal CM Mamata Banerjee) ने विपक्ष के हर बड़े नेता को एक लम्बी चिट्ठी लिख डाली है

Update: 2021-03-31 15:49 GMT

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Bengal CM Mamata Banerjee) ने विपक्ष के हर बड़े नेता को एक लम्बी चिट्ठी लिख डाली है. ममता का कहना है की बीजेपी (BJP) देश के लोकतंत्र पर हमला कर रही है और विपक्ष की हर पार्टी को मिलकर उसके मंसूबों को नाकाम कर देना चाहिए. साफ़ है की ममता बनर्जी का यह कदम रणनीति कम और हार की चिंता ज़्यादा दर्शाता है. लेकिन पहले भी ऐसा होता रहा है. इस तरह से मिल कर चुनाव लड़ने के मार्गदर्शक राम मनोहर लोहिया थे. 1966-67 में उन्होंने जो किया उसने राजनीति को अलग दिशा दी. तब कांग्रेस का वर्चस्व था. लोहिया समाजवादी नेता थे. उनको लगता था की कांग्रेस को हराना प्राथमिकता है और विचारधारा से जुड़े सवालों पर बातचीत बाद में भी की जा सकती है.


लोहिया ने वो कदम उठाये जिस पर आज भी बहस होती है. उन्होंने जनसंघ से बातचीत शुरू कर दी जिसे राजनीति में आरएसएस का अंग माना जाता था. नतीजा ये हुआ की 1967 में उत्तर भारत में गैरकांग्रेस सरकारें बनीं जिन्हे संयुक्त सरकार कहा गया. लेकिन कोई भी सरकार ज़्यादा टिक नहीं पाई. कांग्रेस ने इन सभी सरकारों को गिरा दिया. कारण साफ़ था. इन सरकारों की नींव विचारधारा पर नहीं बल्कि सत्ता की चाहत पर टिकी थी. लेकिन इसका भारतीय राजनीति पर गहरा असर पडा. लोहिया का देहांत 1967 में हुआ लेकिन उनकी राजनीति ने देश की तस्वीर बदल दी.

जब इंदिरा गांधी के खिलाफ इकट्ठा हुआ पूरा विपक्ष
1970 में देश में दो चीज़ें साफ़ हो गयी थीं. इंदिरा गांधी का राजनीतिक वर्चस्व और कांग्रेस के खिलाफ सभी केंद्रीय पार्टियों का नाकाम होना. 1967 में स्वतंत्र पार्टी को 44 सीटें मिली थीं और जनसंघ को 35. 1971 में जन संघ को 22 और स्वतंत्र पार्टी को केवल 8 सीटें मिली. सी.पी.एम. देश की सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन मात्र 25 सीटों की साथ. एक चीज़ साफ़ थी कि इंदिरा गांधी को अकेले हराना असंभव है और देश की जनता ने कांग्रेस के अलावा केंद्र में किसी को बड़ी पार्टी बनने नहीं दिया.

लेकिन इंदिरा गांधी तब एक बड़ी गलती कर बैठीं. लोकप्रिय होने के बावजूद उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर दी. देश की जेल में नेता और पत्रकारों को पकड़ कर डाल दिया. सभी राजनीतिक दल मिल गए. जनसंघ ने अपने आप को जनता पार्टी में मिला लिया. चरण सिंह से लेकर हर छोटा बड़ा नेता जनता पार्टी का हिस्सा बन गया और जनता पार्टी ने 1977 के चुनावों में कांग्रेस को पटक दिया. जनता पार्टी को 283 सीटें मिलीं. लेकिन ये परिक्षण भी फेल हो गया. विचारधारा के ऊपर कलह हुई और मोरारजी भाई की सरकार गिर गई.

वैचारिक मतभेद की वजह से कई बार गिरीं सरकारें
लेकिन विपक्ष को तब तक सत्ता का कीड़ा काट चुका था. उसे समझ में नहीं आ रहा था की देश को वैचारिक विकल्प की ज़रुरत है. देश ने स्वतंत्र पार्टी के वैचारिक विकल्प को किनारे किया था. तब समाजवाद की दुनिया भर में हवा थी और स्वतंत्र पार्टी बड़े व्यापारियों का समर्थन कर थी. बीजेपी की भी हवा गुल थी और 1984 उसे सिर्फ 2 सीटें मिली थीं. 1990 में भी बीजेपी और लेफ्ट ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधान मंत्री बनाया लेकिन विचारधारा और पॉलिटिकल एजेंडा के चलते सरकार फिर गिर गई और देश मंडल और कमंडल की राजनीति में सिमट गया. फिर देश में एक चीज़ और हुई, बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया. अब समाजवादियों को बीजेपी की जगह कांग्रेस का समर्थन मिल रहा था. 1996 से लेकर 1998 तक देश ने दो प्रधान मंत्री देखें और फिर सरकार गिर गई.

मोदी ने देश की राजनीतिक दिशा को फिर 1970 की राजनीतिक दिशा की ओर मोड़ा
देश ने साफ़ संकेत दिया कि उसे ऐसी पार्टी की ज़रूरत है जिसकी विचारधारा में दम है. यही कारण है की देश में समाजवादी पार्टियां सिमट गयीं और कांग्रेस के सामने बीजेपी खड़ी हो गई. ये द्विपक्षीयता 16 साल चली जिसे मोदी ने 2014 में फिर खत्म कर दिया. बल्कि ये कहना ठीक होगा की मोदी ने देश को फिर 1970 की राजनीति की तरफ मोड़ दिया जहां एक ही बड़ी पार्टी का दबदबा होता है. 1998 से लेकर 2014 तक के राजनीतिक अपवाद को खत्म कर दिया.

विपक्ष को देश के लोकतंत्र के इस मिज़ाज को समझना होगा. अगर मोदी के खिलाफ विकल्प खड़ा करना है तो वो विचारधारा और द्विपक्षीय राजनीति पर खड़ा किया जा सकता है जो अडवाणी ने किया था. केवल चुनावी तालमेल से मोदी को नहीं रोका जा सकता है. तालमेल ऐसा हो जो चुनाव के बाद भी बना रहे. इसके लिए एक और चीज़ की ज़रुरत है और वो ये की किसी एक पार्टी के पास 60 से ज़्यादा सीटें हों और वो विपक्ष में एक केंद्र का काम कर सके. कांग्रेस के पास इतनी भी सीट नहीं हैं.

ममता बनर्जी लोकतंत्र की कितनी गुहार लगा लें लेकिन मोदी का तोड़ केवल चुनावी तालमेल नहीं हो सकता है. इसकी नींव केवल एक नया पॉलिटिकल प्रोजेक्ट हो सकता है. बीजेपी ने राम जन्मभूमि का सहारा लिया था. कांग्रेस और उससे जुड़ी पार्टियों को अपनी राह चुननी होगी. मेरे ख़्याल से उसका रास्ता लोहिया और जय प्रकाश की राजनीति से नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के तेवर से जाता है. यानी अपनी शर्तों पर राजनीति.


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