जवाबदेही भी तय हो!
सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप स्वागतयोग्य है। कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार मणिपुर के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता को फौरन रिहा करने का निर्देश दिया है।
सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप स्वागतयोग्य है। कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार मणिपुर के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता को फौरन रिहा करने का निर्देश दिया है। अदालत ने जो फुर्ती दिखाई, उसका भी स्वागत होना चाहिए। मसलन, कोर्ट में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत से इस मामले की सुनवाई एक दिन टालने का अनुरोध किया था। लेकिन अदालत ने कहा कि अब पीड़ित मानव अधिकार कार्यकर्ता लिचोम्बम को जेल में रखना उनकी स्वतंत्रता और जीने के अधिकार का उल्लंघन है। मणिपुर के कार्यकर्ता एरेंड्रो लिचोम्बम को स्थानीय पत्रकार किशोर चंद्र वांगखेम के साथ महज इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था कि उन्होंने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की मौत के बाद फेसबुक पोस्ट पर एक टिप्पणी की थी।
उन्होंने कहा था कि गोमूत्र और गोबर कोरोना का उपचार नहीं है। मणिपुर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष प्रोफेसर टिकेंद्र सिंह की इस साल मई में कोरोना से मौत हो गई थी। उसके बाद राजनीतिक कार्यकर्ता एरेंड्रो लिचोम्बम ने 13 मई को अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि कोरोना का इलाज गोबर और गोमूत्र नहीं है। इलाज विज्ञान और सामान्य ज्ञान है। गौरतलब है कि भाजपा के कई नेता गोबर और गोमूत्र को कोरोना का इलाज बता रहे थे। इसी तरह स्थानीय पत्रकार किशोर चंद्र वांगखेम ने अपनी एक फेसबुक पोस्ट में लिखा था- "गोबर और गोमूत्र काम नहीं आया। यह दलील निराधार है।" इसके बाद प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष उषाम देबन और महासचिव पी. प्रेमानंद मीतेई ने इन दोनों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी।
उसके आधार पर पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत उनको गिरफ्तार कर लिया था। जब ऐसी राय जताने पर रासुका लगने लगे, तो जाहिर उस देश में लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की धारणा पर गंभीर सवाल उठ खड़े होते हैँ। इसलिए कोर्ट का ये हस्तक्षेप हालांकि देर से हुआ, फिर भी उचित है। बहरहाल, रासुका लगाने के लिए पुलिस के पास क्या साक्ष्य थे, यह भी कोर्ट को जरूर पूछना चाहिए। अगर पुलिस न्यायिक कसौटी पर खरा उतरने वाले साक्ष्य को पेश करने में विफल रहती है, तो जिन अधिकारियों ने ये धारा लगाई और व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों का हनन किया, उनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए। आखिर पुलिस सत्ताधारी दल की एजेंसी नहीं होती। उसे कानून और संविधान के दायरे में काम करना चाहिए।