बैंक उन खामियों से मुक्त हों जिनके चलते वे संकट से घिर जाते हैं और भरोसे का संकट पैदा हो जाता है

बैंकिंग ढांचे में कोई बड़ी गड़बड़ी सामने आती है तो न केवल बैंक प्रबंधन पर सवाल उठते हैं, बल्कि RBI और केंद्र सरकार की भूमिका

Update: 2020-11-22 11:46 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। बैंकिंग ढांचे में सुधार के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए रिजर्व बैंक की एक समिति ने यह जो कहा कि कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग कंपनियों में प्रमोटर बनने का अवसर मिलना चाहिए वह एक सही सुझाव प्रतीत हो रहा है, लेकिन यह भी देखने की आवश्यकता है कि बैंकिंग क्षेत्र में कहीं अधिक सुधारों की जरूरत है। इससे भी अधिक इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि जब तक सुधार के कदमों के सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आते तब तक बैंकिंग क्षेत्र की प्रतिष्ठा को स्थापित करना मुश्किल होगा। इससे इन्कार नहीं कि पिछले कुछ वर्षो में रिजर्व बैंक ने बैंकों में सुधार को गति देने वाले एक के बाद एक कदम उठाए हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गड़बड़ियों और विसंगतियों का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है।

जब भी बैंकिंग ढांचे में कोई बड़ी गड़बड़ी सामने आती है तो न केवल बैंक प्रबंधन पर सवाल उठते हैं, बल्कि ऐसे मामलों पर रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार की भूमिका पर भी बहस आरंभ हो जाती है। पिछले दिनों लक्ष्मी विलास बैंक के खाताधारकों पर यह शर्त लगाई गई कि वे 25,000 रुपये से अधिक नहीं निकाल सकते। ऐसा इसलिए करना पड़ा, क्योंकि लक्ष्मी विलास बैंक वित्तीय संकट का सामना कर रहा है। इसके पहले भी कुछ अन्य बैंकों के खाताधारकों को लगभग ऐसी ही परिस्थितियों में इस प्रकार की शर्तो से दो चार होना पड़ा है।

बैंकिंग ढांचे में सुधार के कदमों को आगे बढ़ाने के साथ ही इस पर भी विचार करना चाहिए कि उनके फंसे हुए कर्जो पर उल्लेखनीय कमी कैसे आए। फंसे हुए कर्जों को एक सीमा तक नियंत्रित करना अभी भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। इस चुनौती का एक बड़ा कारण बैंकिंग क्षेत्र के मामले में नीर-क्षीर निर्णय लेने में ढिलाई और राजनीतिक लाभ-हानि को अधिक महत्व देना भी है। यह ठीक है कि पिछले कुछ वर्षों में बैंकों के फंसे हुए कर्जो की समस्या सतह पर आने के बाद सुधार के प्रयास तेज हुए हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इसको लेकर हर स्तर पर सजगता बरती जा रही है।

जहां तक बड़े बैंकों की जरूरत रेखांकित करने की बात है तो यह बहुत पहले से कहा जा रहा है कि बैंकों की तादाद की उतनी जरूरत नहीं जितना कि उनका बड़ा और सक्षम होना। बेहतर यह होगा कि रिजर्व बैंक की समिति की सिफारिशों पर अमल के साथ यह भी सुनिश्चित किया जाए कि बैंक उन खामियों से मुक्त हों जिनके चलते वे रह-रहकर संकट से घिर जाते हैं और भरोसे का संकट उत्पन्न हो जाता है।

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