यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ज्योतिंद्रनाथ मुखर्जी, जो लोकप्रिय रूप से बाघा जतिन के रूप में जाने गये, का सर्वोच्च बलिदान बंगाल और ओडिशा के बाहर बहुत कम जाना जाता है, हालांकि इस संबंध में ऐतिहासिक अभिलेखों की कोई कमी नहीं है. वर्ष 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के सहयोग से सशस्त्र विद्रोह के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता के लिए बाघा जतिन के नेतृत्व में एमएन रॉय और अन्यों द्वारा एक प्रयास किया गया था.
उस प्रकरण को जापान की मदद से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आजाद हिंद फौज के माध्यम से किये गये नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रयास का अग्रदूत माना जा सकता है. अविभाजित बंगाल (वर्तमान में बांग्लादेश) के कुश्तिया जिले के कोया गांव में 1879 में जन्मे बाघा जतिन ने स्कूली शिक्षा के बाद 1895 में कलकत्ता के सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया. उनकी वीरता व साहसिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1904 में एक बार उन्होंने एक जंगल में एक बाघ को तीन घंटे से अधिक समय तक संघर्ष करने के बाद एक खंजर की मदद से मार डाला था, जिसने उनके एक दोस्त पर हमला किया था.
इस घटना ने उन्हें बाघा (टाइगर) जतिन की उपाधि दी. बाघा जतिन गीता के आदर्शों और बंकिम चंद्र के लेखन से बहुत प्रभावित थे. वे वह अरविंद घोष के भवानी मंदिर और विवेकानंद के वर्तमान भारत से भी प्रेरित थे. वर्ष 1905 में बंगाल विभाजन के बाद उग्र राष्ट्रवाद के स्पष्ट आह्वान ने विशेष रूप से देश के बेचैन युवाओं के बीच एक बंधन स्थापित किया. स्वतंत्रता की दिशा में धीमी प्रगति से इस युवा वर्ग का मोहभंग हो गया था तथा वे विरोध व याचिका के रूप में संवैधानिक आंदोलन की प्रभावशीलता में विश्वास खो रहे थे.
उग्र राष्ट्रवाद की भावना को जगानेवाला संगठन 'युगांतर' था और इसके प्रतीक बाघा जतिन थे. लगभग 1905 के आसपास उन्होंने एक संघ का आयोजन किया. यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से इसकी स्थापना छात्र सहकारी भंडार संघ के रूप में की गयी थी, व्यावहारिक रूप से यह बंगाल के क्रांतिकारियों का एक संगठन था. वर्ष 1906 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ख्याति के एमएन रॉय से बाघा जतिन का परिचय हुआ और उसके उपरांत दोनों ने मिलकर काम किया.
साल 1914 की शुरुआत में देश ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष से भर गया था. भारत में क्रांतिकारियों को नैतिक और भौतिक समर्थन का वादा विदेशों से, जैसे- कनाडा में गदर आंदोलन और अमेरिका से मिला. इस पृष्ठभूमि को प्रथम विश्व युद्ध के प्रकोप ने देश में उग्र राष्ट्रवाद की आग को और हवा दी. निर्वासित भारतीय क्रांतिकारियों ने जर्मनी को आशा की भूमि के रूप में देखा. वर्ष 1914 के अंत तक यह खबर पहुंची कि बर्लिन में भारतीय क्रांतिकारी समिति ने जर्मन सरकार से स्वतंत्रता संग्राम की घोषणा के लिए आवश्यक हथियारों और धन का वादा प्राप्त किया था.
गुप्त सम्मेलनों ने एक क्रांतिकारी संगठन का गठन किया, जिसमें बाघा जतिन कमांडर-इन-चीफ थे. एमएन रॉय ने अप्रैल, 1915 में भारत छोड़ दिया और इंडोनेशिया के बटाविया (जकार्ता) चले गये. वहां उन्होंने भारतीयों की सहायता के लिए हथियार भेजने की व्यवस्था करने का प्रयास किया. उसी समय बाघा जतिन भी हथियार आने की संभावना में और पुलिस द्वारा पकड़े जाने से बचने के लिए कुछ साथियों के साथ वर्तमान ओडिशा के बालासोर के लिए रवाना हो चुके थे.
दुर्भाग्य से सशस्त्र विद्रोह की रणनीति का पता सरकार को चल गया और ब्रिटिश सेना ने उस जहाज को रोक दिया, जो भारत के रास्ते में था. बाघा जतिन और उसके सहयोगियों के ठिकाने पर कार्रवाई हुई, जिसमें क्रांतिकारी चित्तप्रिय रॉयचौधरी की मृत्यु हो गयी. दो अन्य सहयोगियों- मनोरंजन सेनगुप्ता और निरेन दासगुप्ता- को पकड़ लिया गया. बाघा जतिन गंभीर रूप से घायल हो गये थे और उन्हें बालासोर के सरकारी अस्पताल ले जाया गया, जहां अगले दिन 10 सितंबर, 1915 को उनकी मौत हो गयी.
बाघा जतिन की लड़ाई के महत्व पर प्रकाश डालते हुए सुप्रसिद्ध लेखक हिरेंद्रनाथ मुखर्जी ने लिखा है, 'बालासोर की लड़ाई- जहां जतिन ने चुनिंदा साथियों के साथ अपना जीवन लगा दिया- ब्रिटिश साम्राज्यवादी अधीनता से स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में एक चमकदार मील का पत्थर बनी हुई है. अजय चंद्र बनर्जी ने बाघा जतिन की दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प को रेखांकित करते हुए लिखा, 'उन्होंने उग्र राष्ट्रवाद के शीर्ष का प्रतिनिधित्व किया, जिसकी परिणति अंतरराष्ट्रीय आयामों के एक क्रांतिकारी युद्ध के रूप में हुई.
ऐसे समय में जब पारंपरिक भारतीय राष्ट्रवाद भारत की स्वतंत्रता के बारे में सोच भी नहीं सकता था, जतिन पूर्ण स्वतंत्रता में विश्वास रखते थे, जबकि पहले उग्रवादियों ने अंतरराष्ट्रीय स्थिति के उपयोग पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था. जतिन की दृष्टि भारत की सीमाओं को पार कर गयी.
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