गोरखनाथ मंदिर पर हमला : आरोपी मुर्तजा अब्बासी से संबंधित तीन सवालों पर जरूर गौर फरमाइए
गोरखपुर में धर्मशाला एक चर्चित चौराहा है
बिपुल पांडे | गोरखपुर (Gorakhpur) में धर्मशाला एक चर्चित चौराहा है. इस चौराहे से आगे बढ़ने पर एक फ्लाईओवर पड़ता है और एल शेप में बने इस फ्लाईओवर से उतरते ही 100 मीटर दूर गोरखनाथ मंदिर (Gorakhnath Mandir) का गेट पड़ता है. 4 मार्च यानि सोमवार की सुबह गोरखनाथ मंदिर के उसी गेट पर एक युवक धारदार हथियार लहराते हुए देखा गया, मंदिर की सुरक्षा में तैनात जवानों पर हमले करता दिखा. इस घटना के बाद एक बार फिर बहस तेज हो गई है कि क्या हिंदू-मुस्लिम (Hindu-Muslim) के बीच कट्टरता तेज हो गई है? क्या धर्मों के बीच घृणा और दूरी बढ़ गई है?
क्या देश की राजनीति ने हिंदुस्तान की गंगा जमुनी तहजीब को संकट में डाल दिया है? लोकल होने के नाते मैं इस मुद्दे पर कुछ लिखना अपना फर्ज और हक समझता हूं. और ये भी समझाना चाहता हूं कि ऊपर दिए सवालों में अगर हम उलझेंगे तो एक बार फिर गलती करेंगे. क्यों? इसके तीन प्वाइंट है. पहला प्वाइंट ये कि क्या मुर्तजा एक मठ के महत्व को समझता है? दूसरा प्वाइंट ये कि अगर एक क्राइम मानकर मुर्तजा को उसी वक्त गोली मार दी गई होती तो क्या होता? तीसरा ये कि क्या अब भी कोई इसे क्राइम मानने का साहस कर सकता है?
पहला प्वाइंट: क्या मुर्तजा मठ के महत्व को समझ सकता है?
इस प्वाइंट को समझाने के लिए भी लोकल होने के नाते एक घटना का जिक्र करना चाहता हूं. बात 1994-95 की होगी. मैं कुशीनगर में अपने गांव से गोरखपुर जा रहा था. गोरखपुर ही हमलोगों का बड़ा शहर है. जो काम हमारे कस्बे के बस में नहीं होता, उसके लिए हमें गोरखपुर ही जाना होता है. खासतौर पर इलाज के लिए. अगर आप पूर्वी उत्तर प्रदेश से परिचित हैं तो आप भी जानते होंगे कि बिहार की राजधानी पटना से पश्चिम में कुछ किलोमीटर तक चलने के बाद, वाराणसी की पहुंच रखने वालों से पहले तक के लोग गोरखपुर को ही अपना शहर मानते हैं. मैं भी कुछ काम से ही बस में बैठा था और मेरे बैठने के कुछ ही देर में एक महिला अपने बच्चे को लेकर बस में सवार हुई.
सात-आठ साल का बच्चा दहाड़ें मारकर रो रहा था, मां अपने बेटे को चुप करा रही थी, लेकिन साथ में ही उसके भी आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. मां-बेटे के विलाप से बस में सवार हर यात्री दहल उठा. बस थोड़ा आगे चली और मैंने हिम्मत करके पूछा- क्या हुआ बेटे को? उस महिला ने बताया कि खेलते-खेलते बच्चे की आंख में चूना चला गया है. अब आप अंदाजा लगाइए. आंख में चूने की जलन से बच्चा किस कदर दहाड़ रहा होगा और उसकी पीड़ा क्या होगी. लेकिन महिला उसी स्थिति में बच्चे को इलाज के लिए लेकर गोरखपुर निकली थी. मैंने पूछा- क्या आप बच्चे को सरकारी अस्पताल में दिखाने ले जा रही हैं? उस महिला ने कहा- नहीं, गोरखनाथ मंदिर के अस्पताल में. क्या आप यकीन करेंगे, वो महिला बुर्का पहने हुए थी. यानी वो मुसलमान थी.
मठ के अस्पताल पर यकीन इतना कि बस वो किसी तरह से अस्पताल की चौखट तक पहुंच जाना चाहती थी? आपको ऐसी कहानी इतिहास की किताबों में नहीं मिलेंगी, लेकिन अगर आप गोरखपुर के आसपास घूमेंगे तो हजारों लोगों की जुबान पर हजारों किस्से मिलेंगे. अगर आज भी आप गोरखनाथ मंदिर के अस्पताल में जाएंगे तो साठ परसेंट तक मुस्लिम मरीजों को इलाज कराते पाएंगे. यहां पर बस एक सवाल है कि क्या मुर्तजा उसी मठ के सामने जान देने या जान लेने के लिए पहुंचा था, जिस पर एक मुस्लिम महिला मुझे इस कदर भरोसा करती दिखी थी? क्या वो ये बताना चाहता था कि मठ और मंदिर उसकी जान के पीछे पड़े हैं? नहीं, उसकी साजिश बड़ी थी. वो ये बताने पहुंचा था कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ वहां के महंत हैं. वो दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हैं. भाजपा के नेता हैं और मुसलमानों के जानी दुश्मन हैं.
दूसरा प्वाइंट: अगर मुर्तजा को गोली मार दी गई होती तो?
सोमवार यानी 4 मार्च को मुर्तजा एक धारदार हथियार लेकर गोरखनाथ मंदिर पहुंचा. अल्ला-हू-अकबर के नारे लगाए. प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि वो 'मुझे मार दो-मुझे मार दो' चिल्ला रहा था. गोरखपुर के लोगों की छवि आमतौर पर अच्छी नहीं है, अगर वाकई क्राइम सीन को देखकर सुरक्षाकर्मियों ने गोली मार दी होती तो क्या होता? सभी जानते हैं कि अगर ऐसा हुआ होता तो और कुछ नहीं बल्कि दंगा होता. लेकिन गोरखपुर के लोगों ने अगर इतना सब्र दिखाया, तो इसकी ये ही वजह थी कि दंगा ना हो. मुर्तजा को किसी ने गोली नहीं मारी. लेकिन समझना जरूरी है कि मुर्तजा अगर जान देना चाहता है तो उसे तकलीफ किस बात की है? उसे दंगा फैलाने की इतनी बेताबी क्यों है? ल ये भी है कि आखिर मुर्तजा खुश क्यों नहीं रह सकता?
अगर यूपी के मुख्यमंत्री और गोरखनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ के दावों पर यकीन नहीं किया जा सकता तो यूपी के दंगों की फाइल निकालकर देख ली जाए. योगी का पांच साल का कार्यकाल शांतिपूर्वक बीता है. इससे पहले पूरा यूपी दंगों की आग में झुलसता रहा है. क्या मुर्तजा को इससे खुशी नहीं होनी चाहिए? क्योंकि दंगा ना होने से सिर्फ हिंदू ही नहीं बल्कि मुसलमानों की भी जान बची है? मठ ने अगर हर धर्म की समान भावना से सेवा की तो योगी के मुख्यमंत्री रहते हुए भी यही भावना आगे बढ़ती दिखी है.
चुनावी विश्लेषकों ने भी नोट किया कि 2017 चुनाव से पहले मुसलमानों को सख्त संदेश देते रहे योगी ने सीएम की कुर्सी पर बैठते ही भेदभाव वाले बयान देने बंद कर दिए. 2022 में चुनाव आचार संहिता लागू होते ही योगी 80-20 परसेंट के फॉर्मूले पर तो उतरे, लेकिन 10 मार्च को नतीजे आने से पहले ही उन्होंने ये भाव एक बार फिर वापस समेट लिया. कुल मिलाकर एक बार फिर वही प्रश्न सामने खड़ा है. देश में ऐसी भावना कौन बना रहा है कि मुर्तजा खुश नहीं रह सकता?
तीसरा प्वाइंट: क्या अब हमें मुर्तजा के कृत्य को क्राइम मानने का साहस करना चाहिए?
हाल ही में कश्मीर फाइल्स फ़िल्म के विवाद पर कश्मीर के राजौरी के एक मौलाना फारुक नक्शबंदी ने भड़काऊ भाषण दिया था. मौलाना ने कहा था- 'क्या आप लोग इस बात की मजम्मत करते हो कि ये फिल्म बंद होनी चाहिए. आप हाथ ऊपर करके ऐलान करो. इस फिल्म पर पाबंदी लगनी चाहिए. हम अमन पसंद लोग हैं. हम इस मुल्क में अमन चाहते हैं. हमने इस मुल्क पर 800 साल हुकूमत की. तुम्हें 70 साल हो गए हुकूमत करते हुए, तुम हमारा निशान मिटाना चाहते हो? खुदा की कसम तुम मिट जाओगे. लेकिन कलमा पढ़ने वाले नहीं मिटेंगे.' ये तकरीर सुनकर एक मौलाना के मानसिक स्तर का अंदाजा लगाया जा सकता है. 800 और 70 साल में क्या लॉजिक है? 70 साल से क्या देश में लोकतंत्र ही नहीं है?
हिंदुस्तान एक सांप्रदायिक देश है? एक मॉन्क को इस तरह की बातें शोभा नहीं देतीं. लेकिन मैंने एक मॉन्क के विचार जानने के लिए मौलाना की बाकी फीड्स को भी फॉलो किया. जब विवाद बढ़ा तो एक चैनल के संवाददाता ने मौलाना नक्शबंदी से उनका रिएक्शन लिया, जिसमें उन्होंने सफाई दी और कहा कि- 'इस मुल्क में 700-800 साल मुसलमानों ने भी हुकूमत की थी. 70-80 साल से मुल्क आजाद होने के बाद ये हुकूमत है. उस समय भी हिंदू-मुस्लिम-सिख-इसाई साथ रहते थे. अब ये कौन सा विवाद है. हम इस मुल्क में अमन के साथ रहना चाहते हैं, भाईचारे के साथ रहना चाहते हैं.'
इस सफाई में भी कोई लॉजिक नहीं है. एक मुस्लिम धर्मगुरु को ये कहने में थोड़ा भी संकोच नहीं होना चाहिए कि वो हिंदू के साथ अमन का रिश्ता कायम नहीं कर सकता. क्योंकि हिंदू काफिर हैं और बुत परस्ती का समर्थन इस्लाम में मुमकिन नहीं है. सच ना बोलने का नतीजा दो दिन से घाटी में लगातार दिख रहा है. हिंदुओं को निशाना बनाया जा रहा है. कश्मीर फाइल्स फिर घूम-फिरकर वहीं आ चुकी है.
कार्पेट के नीचे इतनी गंदगी नहीं छिप सकती
फिर सवाल ये ही आता है कि कार्पेट के नीचे कितनी गंदगी छिपा लेंगे. अगर कार्पेट के नीचे मल-मूत्र भरा पड़ा हो, तो चाहे उसे कितना भी ढंक लें, बदबू तो आएगी ही. इसलिए मुस्लिम धर्मगुरुओं को साथ बैठना चाहिए. अमन के साथ कैसे रहें, इसकी सीमा रेखा तय करनी चाहिए. थोड़ा हिंदुस्तानी-थोड़ा तालिबानी से नहीं चलता. नसीरुद्दीन शाह की तरह कमाना और फिर कट्टर बन जाना, किसी के भी हित में नहीं है.
देश के हर नागरिक को समान प्लेटफॉर्म पर आना होगा. इस विरोधाभास को समझना चाहिए और मुस्लिम धर्मगुरुओं को अपने मुर्तजाओं को असल खुशी का मतलब समझाना चाहिए. एक बात और. सरकार को भी क्राइम को क्राइम कहने का साहस दिखाना चाहिए. देश को जो भी दंगे की आग में झोंकने की कोशिश करे, उसे लॉ ऑफ लैंड से दंडित करना चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)