4 साल में पहली बार आर्मी कैंप पर हमला, आतंक पर लगे लगाम

जम्मू-कश्मीर के राजौरी में आर्मी कैंप पर गुरुवार तड़के हुआ आतंकी हमला कई वजहों से ध्यान देने लायक है। यह फरवरी 2018 के बाद से जम्मू कश्मीर में किसी सैन्य ठिकाने पर हुआ पहला आतंकी हमला है। हालांकि हमला करने आए दोनों फिदायीन आतंकवादी मार गिराए गए, लेकिन इस क्रम में चार जवान भी शहीद हो गए।

Update: 2022-08-14 03:08 GMT

नवभारत टाइम्स: जम्मू-कश्मीर के राजौरी में आर्मी कैंप पर गुरुवार तड़के हुआ आतंकी हमला कई वजहों से ध्यान देने लायक है। यह फरवरी 2018 के बाद से जम्मू कश्मीर में किसी सैन्य ठिकाने पर हुआ पहला आतंकी हमला है। हालांकि हमला करने आए दोनों फिदायीन आतंकवादी मार गिराए गए, लेकिन इस क्रम में चार जवान भी शहीद हो गए। सुरक्षा व्यवस्था की चौकसी की बदौलत पिछले कुछ वर्षों से जम्मू-कश्मीर में बड़े आतंकी हमले लगभग बंद हो गए थे। माना जा रहा था कि सीमा पार से आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देने की कोशिशों पर रोक लगा दी गई है।

हालांकि इस अवधि में जम्मू-कश्मीर के सामान्य लोगों को निशाना बनाने वाली आतंकी गतिविधियों में खासा इजाफा हुआ, जिसे आतंकवादियों की बदली रणनीति का परिणाम माना गया। स्वाभाविक ही टारगेटेड किलिंग्स पर रोक लगाना सुरक्षा बलों की प्राथमिकता में आ गया। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सुरक्षा बलों की बदली प्राथमिकता का फायदा उठाकर सीमापार के आतंकवादी संगठन फिर से फिदायीन हमले को अंजाम देने पर उतर आए हैं। यह आशंका इस वजह से भी मजबूत होती है कि पुलिस के मुताबिक गुरुवार के हमले के पीछे लश्कर-ए-तैयबा का हाथ है। यही नहीं, इससे एक दिन पहले पुलिस ने पुलवामा में 25 किलो आईईडी जब्त किया था।

जाहिर है, राजौर आर्मी कैंप पर हुए हमले को अकेली घटना के रूप में नहीं लिया जा सकता। यह आतंकवादियों के एक बड़े अभियान की कड़ी हो सकता है। इस बीच टारगेटेड किलिंग की घटनाओं में भी कमी आने के संकेत नहीं हैं। गुरुवार को ही बांदीपोरा में हुई बिहार के मधेपुरा के एक प्रवासी मजदूर की हत्या यही बताती है। जाहिर है, छोटे-छोटे स्थानीय गिरोहों के बूते चलाई जाने वाली टारगेटेड किलिंग पर रोक लगाना जितना जरूरी है, उतना ही महत्वपूर्ण है सीमा पार से चलाई जा रही आतंकी साजिशों पर अंकुश लगाए रखना।

इसी बिंदु पर यह दोहराना जरूरी हो जाता है कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव करवाकर निर्वाचित सरकार को सत्ता सौंपने में देर करना ठीक नहीं है। चुनाव आयोग ने हाल ही में वहां मतदाता सूची को अंतिम रूप देकर प्रकाशित करने की समयसीमा 31 अक्टूबर से बढ़ाकर 25 नवंबर कर दी, जिसका व्यवहार में मतलब यह है कि अब इस साल चुनाव नहीं हो पाएंगे। चुनावों के जरिए निर्वाचित नेतृत्व सामने आने पर जो लोकतांत्रिक माहौल बनेगा, उसका फायदा सिविल सोसाइटी की बढ़ी भूमिका के रूप में सामने आ सकता है, जो टारगेटेड किलिंग के पीछे सक्रिय छिटपुट गिरोहों को स्थानीय स्तर पर पहचानने और निष्क्रिय करने में मददगार होगी। समझना होगा कि आतंकवाद के खिलाफ बहुस्तरीय लड़ाई छेड़े बगैर हम जम्मू-कश्मीर को आतंक मुक्त नहीं कर सकते। लोकतांत्रिक प्रक्रिया इस लड़ाई का अहम हिस्सा है, जिसे अनदेखा नहीं करना चाहिए।


Tags:    

Similar News

ईर्ष्या हद
-->