जनता से रिश्ता वेबडेस्क | भारत के लोकतंत्र को लेकर कई शिकायतें हो सकती हैं, लेकिन आम तौर पर किसी संकट की घड़ी में कोई न कोई सांविधानिक संस्था जरूर सहारा बनकर खड़ी हो जाती है। भारत में इस संकट के दौर में पिछले कुछ दिनों से न्यायपालिका की अचानक सक्रियता आश्वस्त करने वाली है। सुप्रीम कोर्ट और कई हाईकोर्ट जिस तरह कोविड की स्थिति और अन्य सवालों पर भी लगातार आम नागरिकों और सांविधानिक मूल्यों के पक्ष में अन्य संस्थाओं को जवाबदेह बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह लोकतंत्र के लिए अच्छा है। ऐसे में, कोई आश्चर्य नहीं कि आए दिन अदालतों की कार्रवाई या उनके फैसले सुर्खियों में बने हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की एक याचिका पर जो ताजा फैसला सुनाया है, वह भी कई तरह से महत्वपूर्ण है। मद्रास हाईकोर्ट ने कुछ दिनों पहले विधानसभा चुनाव के नतीजे आने पर विजय जुलूस निकालने पर रोक लगाने के लिए एक याचिका की सुनवाई की थी। इस सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने कोरोना के मद्देनजर चुनाव प्रचार में भारी भीड़ को लेकर चुनाव आयोग की कड़ी आलोचना की। हाईकोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि चुनाव आयोग के खिलाफ क्यों न हत्या का मुकदमा चलाया जाए। चुनाव आयोग ने इस टिप्पणी को हटाने और मीडिया में इसे छापे जाने पर रोक के लिए हाईकोर्ट से आग्रह किया, लेकिन हाईकोर्ट ने यह आग्रह ठुकरा दिया। तब इस मामले को लेकर आयोग ने सुप्रीम कोर्ट ने याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में इस टिप्पणी को हटाने या मीडिया में इसे छापने पर रोक लगाने से मना किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट और चुनाव आयोग, दोनों ही सांविधानिक संस्थाएं हैं। हाईकोर्ट अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन ऐसी तल्ख भाषा न इस्तेमाल की जाए, तो अच्छा। फिर भी सुप्रीम कोर्ट का यह कहना है कि यह टिप्पणी चलते-चलते की गई है, इसे फैसले का हिस्सा नहीं बनाया गया है, इसलिए इसे हटाने का कोई मतलब नहीं है। इसी तरह, मीडिया जब अदालत की कार्रवाई रिपोर्ट करता है, तो वह एक महत्वपूर्ण काम कर रहा होता है, इसलिए उसे रोका नहीं जाना चाहिए।
आजकल यह प्रवृत्ति कई सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं में देखी जा रही है कि वे अपनी आलोचना के प्रति कुछ ज्यादा संवेदनशील हो रही हैं, अक्सर अपनी आलोचना के खिलाफ या मीडिया में रिपोर्टिंग पर रोक लगवाने के लिए अदालत चली जाती हैं। ऐसी संस्थाओं के लिए इस फैसले में काफी सबक हैं कि अपनी आलोचना के प्रति कैसा रवैया अपनाया जाए। एक तो यह स्वीकार करना जरूरी है कि लोकतंत्र में अगर आप सार्वजनिक जीवन में हैं, तो आपकी आलोचना होगी, और उससे कोई पहाड़ नहीं टूटने वाला। जैसे कि इस फैसले में कहा गया कि ऐसी टिप्पणियों से या मीडिया में इस बात के छपने से चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता तय नहीं होती। पिछले दिनों चुनाव आयोग की बहुत आलोचना होती रही है और हाईकोर्ट की टिप्पणी भी उसकी ही कड़ी है। हो सकता है, चुनाव आयोग पर लगने वाले सारे आरोप सही नहीं हों, लेकिन आयोग के लिए सिर्फ विश्वसनीय होना ही नहीं, लोगों की नजर में दिखना भी जरूरी है। दुर्योग से चुनाव आयोग काफी हद तक इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा है। यह पूरा मामला उसे आत्मनिरीक्षण करने के लिए एक मौका देता है।