विधानसभा चुनावों की शतरंज
भारत और अमेरिका दुनिया के ऐसे दो महान लोकतान्त्रिक देश हैं जिनमें हर वर्ष किसी न किसी जन प्रतिनिधि सदन के चुनाव चलते ही रहते हैं। वास्तव में चुनावों का मौसम रहना किसी भी लोकतन्त्र की ताकत होती है
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत और अमेरिका दुनिया के ऐसे दो महान लोकतान्त्रिक देश हैं जिनमें हर वर्ष किसी न किसी जन प्रतिनिधि सदन के चुनाव चलते ही रहते हैं। वास्तव में चुनावों का मौसम रहना किसी भी लोकतन्त्र की ताकत होती है कमजोरी नहीं, क्योंकि आम लोगों की सत्ता में भागीदारी इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत सुनिश्चित होती है जिसे 'सहभागिता का लोकतन्त्र' कहा जाता है। चालू वर्ष 2021 के दौरान हमने इसकी पहली तिमाही में कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों को देखा था जिनमें प. बंगाल का चुनाव सबसे प्रमुख था। इसी प्रकार आने वाले वर्ष 2022 की पहली तिमाही के दौरान हम पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा व मणिपुर विधानसभाओं के चुनाव देखेंगे। इन सब राज्यों में उत्तर प्रदेश के चुनाव सबसे महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं क्योंकि यह देश का ऐसा राज्य माना जाता है जिससे गुजर कर ही दिल्ली में बनने वाली राष्ट्रीय सरकार का रास्ता जाता है। अतः इस राज्य के चुनाव परिणामों की झनझनाहट से राष्ट्रीय राजनीति में तरंगे उठना स्वाभाविक प्रक्रिया होगी। वैसे फिलहाल इन पांच में से तीन राज्यों उ.प्र., उत्तराखंड, गोवा में फिलहाल भाजपा की सरकारें हैं जबकि मणिपुर में इसके समर्थन से सत्ता चल रही है। केवल पंजाब ही एकमात्र ऐसा राज्य है जिसमें विपक्षी पार्टी कांग्रेस की सरकार है। अतः प्राकृतिक रूप से इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की प्रतिष्ठा प्रमुख रूप से दांव पर रहेगी क्योंकि उसे अपनी वर्तमान सरकारें बचानी होंगी। जहां तक विपक्ष का सवाल है तो उसे पंजाब में अपनी सरकार बचाने के साथ ही अन्य चार राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा और संभव हो तो सत्ता परिवर्तन करके अपना मजबूत वजूद दिखाना होगा क्योंकि लोकतन्त्र में हर पांच वर्ष बाद चुनावों के नियम का मतलब यही होता है कि लोकतन्त्र की असली मालिक आम जनता अपने मनमाफिक विकल्प का चुनाव कर सके परन्तु फिलहाल विपक्ष की जो हालत है उसे देखते हुए सत्तारूढ़ पार्टी को लगभग हर राज्य में बढ़त इसलिए प्राप्त है कि समूचा विपक्ष बिखरा हुआ है और इसकी हर पार्टी के अपने दलगत स्वार्थ हैं परन्तु लोकतन्त्र में यह नियम कोई पत्थर पर खींची हुई लकीर नहीं होती है, बिखरा हुआ विपक्ष चुनावों में अपनी बढ़त बना ही न सके। स्वतन्त्र भारत का लोकतान्त्रिक इतिहास इस बात का गवाह है कि विभिन्न राज्यों में अलग-अलग पार्टियां अपना वर्चस्व स्थापित करने में समय-समय पर कामयाब होती रही हैं। फिलहाल पूरे देश में कुल 4139 विधानसभा सीटें हैं जिनमें से 1516 सीटें भाजपा के पास हैं। भाजपा का देश के 29 राज्यों में से केवल छह में ही पूर्ण बहुमत है। सात राज्यों में इसकी एक से लेकर दस सीटें हैं और चार राज्यों की सरकारों में यह साझा दल के रूप में शामिल है जबकि तीन राज्यों में इसकी एक भी सीट नहीं है। अतः इन आंकड़ों से हमें भारत की राजनीतिक विविधता के बारे में भी पता चलता है। यह राजनीतिक विविधता भारत के स्वतन्त्र होने के बाद से ही हम देखते रहे हैं हालांकि 1967 के बाद से इसके तेवर ज्यादा प्रखर हुए जब नौ राज्यों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ था। जो पांच राज्य अगले वर्ष चुनावों में जायेंगे उनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड व पंजाब किसान आदोलन से प्रभावित रहे हैं। अब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा विवाद का मुद्दा बने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद इन तीनों राज्यों की राजनीति की रंगत में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। यह परिवर्तन किन तेवरों में आता है यह देखने वाली बात होगी क्योंकि श्री मोदी ने आन्दोलन को जारी रखने की वजह समाप्त कर डाली है और इन कानूनों को लेकर जमीन में किसानों के बीच जो रोष था उसे भी शान्त करने का प्रयास किया है। मगर इससे पहले हमने विगत 30 अक्टूबर को 14 राज्यों की 29 विधानसभाई सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणाम को भी देखा है जिन्हें किसी एक पार्टी के पक्ष में नहीं कहा जा सकता। जिस राज्य में सत्ता विरोधी भावना अपने शबाब पर थी वहां सरकार चलाने वाली पार्टी हार गई, जैसे हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा एक लोकसभा व तीन विधानसभा उपचुनाव हार गई मगर मध्य प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा चार में से केवल एक स्थान ही हारी। इसी प्रकार आन्ध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव जीत गई। संपादकीय :ऑनलाइन क्रिमिनल से बचें...प्रवासी भारतीयों की ताकततीन कृषि कानूनों की वापसीपाकिस्तान-तालिबान एक समान !त्रिपुरा में अभिव्यक्ति का अर्थ?बलि का बकरा बनते डाक्टरकहने का मतलब यह है कि राज्यों के चुनाव प्रायः प्रादेशिक मुद्दों पर लड़े जाते हैं मगर यह जरूरी भी नहीं है क्योंकि पिछले एक दशक से प्रादेशिक चुनावों में राष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिका प्रमुख बनती जा रही है लेकिन ऐसा पूर्व केन्द्र में कांग्रेस के शासन रहते भी होता रहा है। इसकी वजह यह कि चुनाव मूल रूप से राजनीतिक पार्टियां ही लड़ती रहती हैं। इन पार्टियों का नेतृत्व कितना शक्तिशाली है इसका असर चुनावों पर पड़ना लाजिमी होता है। मगर राज्यों के चुनावों में क्षेत्रीय नेतृत्व की भूमिका को कम करके भी नहीं आंका जा सकता। इसका उदाहरण तमिलनाडु से लेकर केरल, ओडिशा, प. बंगाल व अन्य उत्तर पूर्वी राज्य हैं। एक मायने में उत्तर प्रदेश भी सीमित रूप से इस घेरे में आ सकता है क्योंकि इस राज्य में समाजवादी व बहुजन समाज पार्टी जैसे दल सत्ता पर अपने बूते पर बैठते रहे हैं। मगर राजनीति का रंग क्या होगा और किस शक्ल में होगा इसका भेद केवल जनता ही जानती है। अतः आने वाले विधानसभा चुनावों में पांचों राज्यों के मतदाता कौन सी करवट से किस पार्टी के स्वरूप को निहारते हैं यह तो तीन-चार महीने में बनने वाली परिस्थितियों पर निर्भर करेगा परन्तु फिलहाल केवल इतना ही कहा जा सकता है कि राजनीति 'चार हाथ' आगे चल रही है। इन पांचों राज्यों में चुनावी चौसर बिछ चुकी है।