अमेरिका : फेडरल रिजर्व के रुख से बदलती दुनिया, क्या ब्याज दरें बढ़ेंगी और महंगाई पर लगेगी लगाम?

सुब्बा राव तो दर्जन बार बढ़ाकर भी नहीं कर पाए थे।

Update: 2022-09-16 03:20 GMT

अमेरिका का केंद्रीय बैंक, जिसे फेडरल बैंक कहते हैं, दुनिया की आर्थिक गतिविधियों का सबसे बड़ा केंद्र है और इसका कोई भी बड़ा फैसला काफी असर डाल देता है। इस समय सारी दुनिया की नजरें इस महीने की 21 तारीख को होने वाली उसकी बैठक पर गड़ी हुई हैं। दरअसल फेडरल बैंक ने पिछले दिनों अपनी ब्याज दरों में काफी बढ़ोतरी की है, क्योंकि अमेरिका ऐतिहासिक महंगाई से जूझ रहा है।




मुद्रास्फीति की दर आसमान छू रही है, जून में यह 9.2 फीसदी हो गई थी और यह इस समय घटकर आठ फीसदी पर आई है, जबकि फेड चाहता है कि यह दो फीसदी के आसपास रहे। फेड के कामकाज पर नजर रखने वाले कहते हैं कि इस बार फिर फेड ब्याज दरों में 0.75 फीसदी बढ़ोतरी कर सकता है। इसके पहले भी उसने 0.75 फीसदी की बड़ी बढ़ोतरी की है। फेड ब्याज दरें बढ़ाकर अर्थव्यवस्था से अतिरिक्त धन निकालना चाहता है।


जब ब्याज दरें बढ़ जाती हैं, तो लोग पैसा बाजार में खर्च करने के बजाय बांडों में लगाना पसंद करते हैं। यह माना जाता है कि बढ़ी हुई ब्याज दरें बाजार से अतिरिक्त धन को बाहर निकल देती हैं, जिससे महंगाई पर असर पड़ता है। डॉलर भी महंगा हो जाता है और रुपये की कीमत गिरने लगती है, जिसका असर व्यापार संतुलन पर पड़ता है, जो निगेटिव हो जाता है। यानी व्यापार घाटा बढ़ने लगता है। डॉलर महंगा होने से सबसे बड़ा असर कच्चे तेल की कीमतों पर पड़ता है, जिनमें तेजी आती है।

इसके असर से देश में महंगाई बढ़ जाती है। आज सारी दुनिया महंगाई के लपेटे में है, जिसका मुख्य कारण कच्चे तेल की बढ़ी हुई कीमत है। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण कच्चे तेल और गैस की आपूर्ति पर भारी असर हुआ। इससे एक समय तो कच्चे तेल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों में 150 डॉलर प्रति बैरल हो गई थीं। अभी हालात में काफी सुधार है और यह 90 डॉलर के आसपास है।

लेकिन सर्दियां आ रही हैं और इसके दाम फिर बढ़ सकते हैं, क्योंकि अमेरिका, यूरोप तथा अन्य ठंडे देशों में ऊर्जा के लिए कच्चे तेल की मांग काफी बढ़ जाती है। इस समय दुनिया ऊर्जा के संकट से जूझ रही है, जिसका ओपेक देश जमकर फायदा उठा रहे हैं। भारत इस समय महंगाई की चपेट में है। ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि अगस्त महीने में महंगाई की दर 6.71 फीसदी से बढ़कर 7 फीसदी हो गई, जो जनता को रुलाने के लिए काफी है।

खाने-पीने की चीजों की कीमतें 7.62 फीसदी बढ़ गई हैं। अब भारत में भी रिजर्व बैंक इसे नीचे लाने के लिए कदम उठाएगा, क्योंकि उसे महंगाई को छह फीसदी से नीचे रखना है। उसके पास ब्याज ही एक बड़ा हथियार है, जिससे वह इस दिशा में प्रयास करता है। दुनिया भर के केंद्रीय बैंक यह उपाय करते हैं। लेकिन जब अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ाई जाती हैं, तो उससे दुनिया भी हिल जाती है।

कीमतों पर लगाम लगने की संभावना बढ़ जाती है, क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था व्यवस्थित है और उसमें नकदी का प्रवाह बहुत ही कम है और दूसरी बात यह भी है कि वहां हमारी तरह काला धन अर्थव्यवस्था में रचा-बसा नहीं है। इस कारण से वहां तो सफलता मिलती है, लेकिन भारत में नहीं के बराबर। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पूर्व गवर्नर सुब्बा राव के ज़माने में देखने को मिला। उन्होंने महंगाई को थामने के लिए 12 बार रेपो रेट बढ़ाया और ब्याज दरों को 8.25 फीसदी पर पहुंचा दिया।

फिलहाल तो भारत में ऐसी संभावना नहीं दिखती है, लेकिन अगर महंगाई पर लगाम नहीं लगी, तो इस परंपरागत अस्त्र का इस्तेमाल करने में शक्तिकांत दास नहीं चूकेंगे। भारत की समस्या है कि यह निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था खपत पर आधारित है और हमारा व्यापार घाटा काफी बड़ा है। ऐसे में जब डॉलर महंगा हो जाता है, तो यह फासला और बढ़ जाता है। अगर फेड ने 0.75 फीसदी ब्याज बढ़ाया तो इसका असर इस पर पड़ेगा और विदेशी निवेशक भारत से पैसे निकालने लग जाएंगे। रिजर्व बैंक क्या रेपो रेट में बढ़ोतरी के परंपरागत हथियार से इसका मुकाबला कर पाएगा? सुब्बा राव तो दर्जन बार बढ़ाकर भी नहीं कर पाए थे।

   सोर्स: अमर उजाला 

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