अफगानिस्तान में नाकाम होता अमेरिका: अफगान फिर आतंकियों का अड्डा बन सकता है, अन्य देशों के साथ भारत को भी हो सकता है खतरा पैदा

गत 25 जून को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और राष्ट्रीय पुनर्गठन वाली उच्च परिषद के चेयरमैन अब्दुल्ला अब्दुल्ला से मुलाकात की।

Update: 2021-06-30 11:14 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| [ विवेक काटजू ]: गत 25 जून को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और राष्ट्रीय पुनर्गठन वाली उच्च परिषद के चेयरमैन अब्दुल्ला अब्दुल्ला से मुलाकात की। बाइडन ने सुरक्षा मोर्चे पर अफगानिस्तान की सहायता के लिए अमेरिकी सहयोग दोहराने के साथ ही स्पष्ट किया कि 11 सितंबर तक अमेरिकी फौजों की वापसी को लेकर उनका फैसला नहीं बदलेगा। तब तक नाटो सेनाओं की भी वापसी हो जाएगी। यह सब तब होगा जब तालिबान ने अभी तक अमेरिकी योजनाओं के अनुरूप कदम उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। अमेरिकी योजना मुख्य रूप से तीन बिंदुओं पर टिकी है। एक, अंतरिम सरकार का गठन, जिसमें अफगान नेता और तालिबान दोनों शामिल होंगे। दूसरा बिंदु संघर्ष विराम और तीसरा अफगानिस्तान के भविष्य की चर्चा से जुड़ा है। चूंकि तालिबान हमले करने और इलाके कब्जाने में जुटा है, इसलिए ये उम्मीदें चकनाचूर हो रही हैं कि अफगानिस्तान में करीब 20 साल से टिके हुए अमेरिका और नाटो की विदाई शांतिपूर्वक हो जाएगी।

अफगान सरकार के साथ तालिबान की वार्ता के दरवाजे पूरी तरह बंद नहीं
हालांकि अफगान सरकार के साथ तालिबान की वार्ता के दरवाजे पूरी तरह बंद नहीं हुए हैं, लेकिन अमेरिकी योजनाओं के साकार होने की उम्मीद कम ही है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक हालिया साक्षात्कार में परोक्ष रूप से इसके संकेत भी दिए। तालिबान पर पाकिस्तानी प्रभाव के कम होने को लेकर अमेरिकी घोषणा पर इमरान ने कहा कि इस एलान ने तालिबान को आश्वस्त किया कि उसने यह जंग जीत ली है। इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान तालिबान को अमेरिकी शांति प्रस्ताव मानने के लिए विवश कर सकता है। अगर अफगानिस्तान में शांति बहाल होती है तो यह पाकिस्तान के हित में ही होगा। पाकिस्तान भी यही कहता है, लेकिन उसकी करनी कथनी से इतर दिखती है। उसने हमेशा अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में दखल देने और भारत-अफगान रिश्तों को पटरी से उतारना चाहा है। ऐसे में अफगानिस्तान की भावी स्थिति को लेकर दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
अमेरिका का दायित्व है अफगानिस्तान को खतरे में न डाले
अफगानी लोगों के साथ तमाम दूसरे देश बदतर परिदृश्य के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। इस बीच अमेरिका करीब एक लाख लोगों को किसी बाहरी स्थान पर भेजने की तैयारी कर रहा है। अधिकांश रपट यही संकेत करती हैं कि उन्हें अमेरिकी क्षेत्र गुआम ले जाया जाएगा। दिलचस्प रूप से कुछ अन्य देशों ने भी इन लोगों को अस्थायी रूप से लेने के लिए संपर्क किया है। यह कदम इसका स्पष्ट संकेत है कि अमेरिका को विश्वास नहीं कि अफगान सरकार इन लोगों को सुरक्षा उपलब्ध करा पाएगी। साथ ही यह तालिबान के उभार को रोकने में भरोसे के अभाव को भी प्रदर्शित करता है। तमाम अमेरिकी सांसद, जिनमें बाइडन की पार्टी के समर्थक भी शामिल हैं, इस पर जोर दे रहे हैं कि यह उनके देश का दायित्व है कि अफगानिस्तान में जिन्होंने उसकी मदद की, उन्हें किसी खतरे में न डाला जाए।
अमेरिका और नाटो पाकिस्तान से सहयोग के चलते नहीं हरा सके तालिबान को
यहां यह स्मरण करना महत्वपूर्ण होगा कि 9-11 हमले के बाद अमेरिका के लिए अफगानिस्तान पर हमले की सबसे प्रमुख वजह यही थी कि वह उसे अंतरराष्ट्रीय आतंकियों के हाथों में ऐसे बेस के रूप में इस्तेमाल होने से रोकना चाहता था, जो अमेरिकी जमीन पर हमलों को अंजाम देने में जुटे हों। चूंकि तत्कालीन तालिबान सरकार ने मुल्ला उमर सहित अन्य आतंकियों को अमेरिका के हवाले करने से इन्कार कर दिया था अत: बुश प्रशासन के पास अल कायदा के ठिकानों को तबाह करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। इस बीच अल कायदा की हालत जरूर खस्ता हुई है, लेकिन पाकिस्तानी सहयोग से तालिबान खुद को नए सिरे से खड़ा करने में सक्षम हो गया है। वह अफगानिस्तान में अमेरिकी, नाटो और अफगान सुरक्षा बलों के खिलाफ मुहिम छेड़े हुए है। अमेरिका और नाटो तालिबान को इसलिए नहीं हरा सके, क्योंकि उसे पाकिस्तान से लगातार सहयोग मिलता रहा।
तालिबान और अल कायदा की दोस्ती कायम
आखिर अमेरिका ने सामरिक हार स्वीकार करते हुए तालिबान से वार्ता आरंभ की। गत वर्ष फरवरी में यह वार्ता किसी नतीजे पर पहुंची। समझौते का पहर्ला ंबदु यही था कि तालिबान अपने नियंत्रण वाले इलाकों का आतंकी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा। ऐसी रपट आई हैं कि तालिबान और अल कायदा की दोस्ती कायम है। इतना ही नहीं आइएस भी अफगानिस्तान में मौजूद है। ऐसे में बीते 20 वर्षों से अफगान युद्ध में उलझे अमेरिका का मुख्य उद्देश्य ही पूरा होता नहीं दिख रहा।
अल कायदा और आइएस को भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है
बाइडन प्रशासन यह मान रहा है कि अफगानिस्तान में सक्रिय अंतरराष्ट्रीय आतंकी समूहों से निपटने के लिए उसके पास पर्याप्त क्षमताएं हैं और वे अमेरिका को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। इसके उलट अफगानिस्तान में संयुक्त कमान के मुखिया जनरल मिले ने कुछ दिन पहले यह स्वीकार किया कि अगर अफगान सरकार कमजोर होती है और अफगान सेना तितर-बितर हो जाती है तो दो वर्षों के भीतर अंतरराष्ट्रीय आतंकी समूह अमेरिका को चुनौती देने में सक्षम हो जाएंगे। यदि ऐसा होता है तो उनका निशाना केवल अमेरिका नहीं होगा।
सभी बड़े देश आपसी बैर भुलाकर दुश्मन के खिलाफ एकजुट होकर कसें कमर
अफगानिस्तान एक बार फिर आतंकी समूहों के लिए ऐशगाह बन जाएगा। इन आतंकियों के निशाने पर रूस, चीन, यूरोपीय देश, मध्य एशियाई, कुछ पश्चिम एशियाई और यहां तक कि पाकिस्तान भी हो सकता है। अल कायदा और आइएस को भारत के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे में सभी बड़े देशों के लिए यही उपयुक्त होगा कि वे आपसी बैर और प्रतिद्वंद्विता भुलाकर एक साझा दुश्मन के खिलाफ एकजुट होकर कमर कसें। चूंकि काफी अर्से से कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ है इसलिए आतंकवाद का मुद्दा वैश्विक प्राथमिकता की सूची में उतना ऊपर नहीं रह गया है। फिलहाल सभी देश अपने निजी हितों के हिसाब से रणनीति बना रहे हैं। इसमें तालिबान और उसके मददगार पाकिस्तान को अनदेखा किया जा रहा है।
भारत को तालिबान से वार्ता की कड़ियां जोड़नी चाहिए
अब यही उम्मीद की जा सकती है कि अफगानिस्तान में बदतर परिदृश्य न बने, मगर नीतियां उम्मीद के आधार पर नहीं बनाई जा सकतीं। इसलिए भारत भी तालिबान को अनदेखा नहीं कर सकता। उसे तालिबान से वार्ता की कड़ियां जोड़नी चाहिए, भले ही उसके पाकिस्तान के साथ कितने ही गहरे रिश्ते क्यों न हों। याद रहे कि कूटनीति में कोई भी न तो स्थायी शत्रु होता है और न मित्र। तालिबान जैसे समूहों को भारत की चिंताओं एवं क्षमताओं से सीधे ही परिचित कराया जाना चाहिए।


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