तालिबानी सोच से परास्त हुआ अमेरिका: तालिबान के खिलाफ लड़ाई को कम करके आंकना अमेरिका की बनी नाकामी की वजह
गत 15 अगस्त को दुनिया ने अफगानिस्तान पर पुन: तालिबान का कब्जा होते हुए देखा।
भूपेंद्र सिंह | गत 15 अगस्त को दुनिया ने अफगानिस्तान पर पुन: तालिबान का कब्जा होते हुए देखा।यह घटना अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा बीस साल पहले शुरू किए गए युद्ध की विफलता का प्रतीक है। तालिबान के खिलाफ इस युद्ध में बड़े पैमाने पर जान, माल और संसाधनों का नुकसान हुआ। इतने व्यापक स्तर पर छेड़ी गई इस मुहिम का जो नतीजा निकला उसकी कल्पना नहीं की गई थी। ऐसे में गहन आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।
वर्ष 1929 में संक्षिप्त गृहयुद्ध को छोड़कर पहले और दूसरे विश्व युद्धों के दौरान भी अफगानिस्तान काफी हद तक शांतिपूर्ण था, लेकिन 20वीं शताब्दी के मध्य से वहां की स्थिति बिगड़नी शुरू हो गई। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चले शीत युद्ध के दौरान अफगानिस्तान दोनों महाशक्तियों के बीच संघर्ष का अखाड़ा बन गया। वर्ष 1979 में तत्कालीन सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया। इसके उपरांत 1990 के बाद वहां गृहयुद्ध छिड़ गया जिसने अफगानिस्तान को एक असफल राज्य में बदल दिया। उसका संघीय ढांचा चरमराता चला गया और तालिबान की सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया। फिर 21वीं सदी की शुरुआत में एक बड़ी घटना घटी। अल कायदा नामक एक आतंकी संगठन ने अमेरिका पर बर्बर हमलों को अंजाम दिया। चूंकि अल कायदा अफगानिस्तान में पनाह लिए हुए था, लिहाजा अमेरिका ने जवाबी कार्रवाई में अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया, जिसमें हजारों लोग मारे गए और उससे भी अधिक विस्थापित हुए।
अमेरिका के संयुक्त चीफ आफ स्टाफ के पूर्व वरिष्ठ सलाहकार कार्टर मल्कासियन ने अपनी एक किताब में तालिबान के बारे में बताया है कि '2019 में कंधार में तालिबान के एक धार्मिक विद्वान से उनकी मुलाकात हुई। उसने उन्हें बताया कि तालिबान अपनी आस्था के लिए लड़ते हैं, जबकि उनकी नजर में सेना और पुलिस पैसे के लिए लड़ती हैं। तालिबान अपनी आस्था के लिए अपना सिर कटवाने को तैयार हैं तो ऐसे में सेना और पुलिस उनसे कैसे प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं?' वह आगे लिखते हैं कि 'तालिबान ने कुछ ऐसा निदर्शन दिया है, जिसने उसके लोगों को प्रेरित कर दिया है। जिसने उन्हें युद्ध में शक्तिशाली बना दिया है। उन्हें एक अफगान होने का मतलब बता दिया है।' जाहिर है तालिबान की विचारधारा के प्रसार का कारण तो अमेरिका को पता था, पर उसका प्रभावी प्रत्युत्तर देना उसे समझ नहीं आया। अमेरिका और उसके सहयोगियों ने तालिबान र्की ंहसा का मुकाबला हिंसा से करने का रास्ता चुना। उन्होंने इस अनुमान के आधार पर एक युद्ध छेड़ दिया कि वे अफगानिस्तान पर आक्रमण करेंगे और तालिबान का सफाया कर देंगे। 9/11 के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था कि 'तालिबान इसकी कीमत चुकाएगा', लेकिन हजारों सैनिकों, अरबों डालर, तकनीक और दूसरे संसाधन झोंकने के बावजूद परिणाम अमेरिकी सोच के उलट निकला। दरअसल अमेरिका और उसके साथी इंसानी लक्ष्य पर प्रहार करते रहे, इस बात से बेखबर रहे कि वास्तविक समस्या एक कट्टर विचारधारा थी।
यह वही अमेरिका है जिसने लगभग तीन दशक पहले साम्यवाद की बड़ी दीवार गिरा दी थी। फिर तालिबान के खिलाफ वह नाकामयाब कैसे हो गया? 1981 में अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद रोनाल्ड रीगन ने साम्यवाद का मुकाबला करने के लिए एक रणनीति तैयार की। उन्होंने कहा कि अमेरिकी नीति में एक वैचारिक जोर की आवश्यकता है। इसके बाद पूंजीवाद को मजबूत करने के लिए हर उपलब्ध संसाधन का उपयोग किया गया। थिंक टैंक, साहित्य, मीडिया और अनेक माध्यमों से पूंजीवाद को साम्यवाद के एकमात्र उपयुक्त विकल्प के रूप में प्रदर्शित किया गया। परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में सोवियत संघ बिखर गया, लेकिन तालिबान के मामले में अमेरिका ने वैचारिक लड़ाई को छोटा करके आंका। वह तालिबान को एक मामूली प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता रहा और कोई बड़ी रणनीतिक योजना नहीं बना पाया, जैसी उसने सोवियत संघ के विरुद्ध बनाई। तालिबानी विचार पर हमला करने के बजाय उसने अफगानिस्तान में अपनी सैन्य कार्रवाई जारी रखी।
अफगानिस्तान के लोगों की धर्म को लेकर अपनी एक समझ है। यह उनके जीवन के लगभग हर हिस्से पर हावी है। तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर ने इस बात को बहुत पहले ही समझ लिया था। उसने कुरान और पैगंबर मुहम्मद साहब की शिक्षाओं की गलत व्याख्या कर उन्हें प्रचारित किया। आज जब बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी 'जिहाद' और 'किताल' शब्दों में अंतर नहीं कर पाते हैं तो निरक्षर अफगानियों से कैसे उम्मीद की जा सकती थी? उन्हें कितने लोगों ने बताया होगा कि जिहाद का अर्थ 'आत्म-संघर्ष' है और किताल का अर्थ 'युद्ध'। जिहाद व्यक्ति के अपने संघर्ष का मामला है और किताल एक राज्य का विषय है। इस्लाम में शांति को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। मुहम्मद साहब शांति बनाए रखने के लिए सब कुछ त्यागने को तैयार थे। इस्लाम के नाम पर तालिबान द्वारा हिंसा उनके विचारों के विरुद्ध है।
वास्तव में तालिबान जैसा समूह एक विचारधारा की गलत व्याख्या की ही अभिव्यक्ति है। ऐसी विचारधाराओं से हम सिर्फ युद्ध के जरिये नहीं निपट सकते। उनसे और गहराई से निपटने की जरूरत होती है। तालिबान जैसे संगठन इस्लाम की छवि को आहत करते हैं, जो इस्लाम के नाम पर अपने लक्ष्यों को हासिल करने में लगे हुए हैं। आज तालिबान का मुकाबला करने की जिम्मेदारी केवल अमेरिका या उसके सहयोगियों पर नहीं है, बल्कि मुस्लिम देशों के संगठन समेत दुनिया भर के प्रमुख मुस्लिम विद्वानों पर भी है कि वे ऐसी विचारधारा को रोकने का काम करें जिससे न सिर्फ दुनिया में अशांति बढ़ती है, बल्कि विश्व भर में रह रहे आम मुसलमानों के जीवन पर भी एक नकारात्मक असर डालती है।