पता नहीं कि जिन्ना को गांधी, नेहरू, पटेल के समकक्ष रखने वाले बयान से अखिलेश यादव को क्या हासिल होगा, लेकिन यह पहली बार नहीं जब देश में जिन्ना की पैरवी की गई हो। कुछ समय पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) से जिन्ना की फोटो हटाने की मांग पर विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ कथित सेक्युलर तत्वों ने भारत विभाजन के इस सबसे बड़े खलनायक का यह कहकर बचाव किया था कि उन्हें तो बंटवारे के बहुत पहले छात्र संघ की ओर से आजीवन सदस्यता दी गई थी। यह एक कुतर्क ही था, लेकिन एएमयू छात्रसंघ की हठधर्मी के कारण कारण जिन्ना की फोटो वहां सलामत रही। अलग मुस्लिम देश की जिद पकड़ने के पहले के जीवनकाल का उल्लेख कर जिन्ना की तारीफ करने का काम लालकृष्ण आडवाणी ने भी किया था। पाकिस्तान की यात्र पर गए आडवाणी ने कहा था कि जिन्ना का जिक्र एक ऐसे व्यक्ति के रूप में किया जाना चाहिए, जो मुस्लिम बहुल आबादी के साथ पंथनिरपेक्ष देश चाहते थे। बेशक मुस्लिम लीग बनने के पहले तक जिन्ना खुद को केवल मुसलमानों का नेता नहीं मानते थे, लेकिन बाद में वह दो राष्ट्र सिद्धांत के मुरीद बन गए और फिर उनकी जिद से देश का रक्तरंजित विभाजन हुआ।
मुसलमानों के लिए एक अलग देश की मांग पर अड़ने वाले जिन्ना को समझने की जैसी भूल लालकृष्ण आडवाणी ने की, वैसी ही कुछ साल बाद भाजपा के एक और बड़े नेता जसवंत सिंह ने की। उन्होंने अपनी किताब 'जिन्ना : इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस' में लिखा कि जिन्ना को भारत में गलत रूप में पेश किया गया। लालकृष्ण आडवाणी और जसवंत सिंह, दोनों को जिन्ना के पापों पर पर्दा डालने की भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी। कहना कठिन है कि अखिलेश यादव को ऐसी कोई कीमत चुकानी पड़ेगी या नहीं? जो भी हो, जिन्ना के प्रारंभिक जीवन को रेखांकित कर उनका गुणगान करना वैसा ही है, जैसे कोई घोटालेबाज-महाठग नीरव मोदी की यह कहकर बड़ाई करे कि वह एक प्रतिभाशाली हीरा व्यापारी था अथवा आतंकी बुरहान वानी को केवल हेडमास्टर के सुंदर-सुशील बेटे के रूप में चित्रित करने लगे।
केवल जिन्ना ही देश विभाजन के ऐसे खलनायक नहीं, जिनका जब-तब गुणगान करने की कोशिश होती हो। ऐसे ही एक और खलनायक अल्लामा इकबाल भी हैं, जिन्होंने 1904 में 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा' लिखा। इसके कुछ समय बाद उनका भी रूपांतरण हो गया और 1910 में उन्होंने एक जिहादी तराना लिख डाला, जिसके बोल कुछ इस तरह थे- 'चीन-ओ-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा। मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा।' इसके बाद 1930 में उन्होंने इलाहाबाद में मुस्लिम लीग की बैठक में मुसलमानों के लिए अलग देश का विचार उछाल दिया। अपने इसी भाषण में हिंदुओं और मुसलमानों को लेकर उन्होंने कहा था कि न तो हमारे ख्यालात एक हैं और न ही रिवाज। पाकिस्तान में उनके इस भाषण को आइडिया आफ पाकिस्तान के रूप में पढ़ाया जाता है।
जिन इकबाल को पाकिस्तान का वैचारिक जनक कहा जाता है, उन्हें भारत में चाहने वाले कम नहीं। 2016 के विधानसभा चुनाव से पहले बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अचानक इकबाल याद आ गए। 2015 में बंगाल उर्दू अकादमी की ओर से आननफानन जश्ने-इकबाल का आयोजन हुआ, जिसमें ममता सरकार ने इकबाल को मरणोपरांत तराना ए हिंद सम्मान से नवाजा। पाकिस्तान से यह सम्मान लेने के लिए इकबाल के पोते वलीद इकबाल खास तौर पर कोलकाता आए। इकबाल के जन्मदिन पर देश के कुछ और हिस्सों में उनके सम्मान में तराने गाए जाते हैं। इस दौरान भारत विभाजन का आधार तैयार करने में उनकी भूमिका के साथ-साथ वतनपरस्ती को मजहबपरस्ती में तब्दील करने को भुलाकर केवल यह याद रखा जाता है कि वह एक उम्दा शायर थे। जो जिन्ना और इकबाल की पैरवी करते समय केवल उनके प्रारंभिक जीवन का उल्लेख करना आवश्यक समझते हैं, वही सावरकर के शुरुआती जीवन को भुलाकर केवल यह बताना पसंद करते हैं कि उन्होंने तो अंग्रेजों से माफी मांगी थी। हो सकता है कि अखिलेश यादव की जुबान फिसल गई हो, लेकिन यदि वह जिन्ना की पैरवी करना चाहते थे तो यह बहुत ही खतरनाक बात है।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)