अकबर मानहानि केसः प्रतिष्ठा से बड़ी गरिमा

पूर्व केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर की ओर से दायर आपराधिक मानहानि मामले में आया दिल्ली की एक अदालत का फैसला उन सभी महिलाओं को हौसला देने वाला है

Update: 2021-02-19 11:45 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| पूर्व केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर की ओर से दायर आपराधिक मानहानि मामले में आया दिल्ली की एक अदालत का फैसला उन सभी महिलाओं को हौसला देने वाला है, जो जीवन में किसी न किसी रूप में यौन उत्पीड़न की शिकार हुई हैं या ऐसी आशंका के बीच जी रही हैं। देश में मी-टू आंदोलन का दौर शुरू होने के बाद प्रिया रमानी उन शुरुआती महिलाओं में थीं जिन्होंने कथित उत्पीड़क का नाम लेते हुए अपने उत्पीड़न का ब्योरा दिया। उनके बाद एक-एक कर कई महिला पत्रकारों ने आगे आकर बताया कि उन्हें भी अपने तत्कालीन संपादक अकबर के ऐसे ही कृत्यों का सामना करना पड़ा है। नतीजा यह रहा अकबर को केंद्रीय मंत्री का पद छोड़ना पड़ा और उन्होंने प्रिया रमानी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर किया। अदालत ने अपने फैसले में प्रिया रमानी को बरी तो किया ही, साथ में ऐसी कई दलीलों को मजबूती से खारिज किया जो बुरे अनुभवों से गुजरने के बाद मुंह खोलने की हिम्मत करने वाली महिलाओं के खिलाफ इस्तेमाल की जाती रही हैं।

अदालत ने साफ कहा कि प्रतिष्ठा के अधिकार को महिलाओं के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार से ज्यादा तवज्जो नहीं दी जा सकती। यह भी कि पीड़ित महिला घटना के दसियों साल बाद भी जहां ठीक समझे वहां अपनी बात रख सकती है और उसको अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए दंडित नहीं किया जा सकता। अदालत का यह फैसला इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि मी-टू आंदोलन के बाद अपने देश में भी ऐसे सवाल उठाए जाने लगे थे कि आखिर ये महिलाएं इतने साल चुप क्यों रहीं और कानूनी प्रक्रिया का सहारा लेने के बजाय ये सोशल मीडिया पर अपनी बात क्यों कह रही हैं। अदालत ने ठीक ही रेखांकित किया कि ऐसी घटनाएं विक्टिम को अंदर से तोड़ देती हैं। उसका आत्मविश्वास कम कर देती हैं। अक्सर वह खुद को ही दोषी मानती रहती है। इस सबसे उबरने में वक्त लगता है।
बहरहाल, याद रखना जरूरी है कि मी-टू आंदोलन का दूसरा दौर भी समाप्त हो चुका है और वर्कप्लेस पर महिलाओं की स्थिति आज की तारीख में भी उससे किसी मायने में बेहतर नहीं है, जैसी यह मी-टू शुरू होने के समय थी। इसे मी-टू आंदोलन की प्रतिक्रिया कहें या लॉकडाउन का आघात, पर तथ्य यही है कि ऑफिसों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या कुछ साल पहले की तुलना में अभी काफी कम हो गई है। वर्कप्लेस पर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का यह घटा हुआ अनुपात यौन उत्पीड़न की दृष्टि से उनकी स्थिति को और कमजोर बनाएगा। ऐसे में यह यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वर्कप्लेस पर जैसे बाकी कामकाजी सुविधाएं जुटाई जाती हैं, वैसे ही यौन उत्पीड़न संबंधी शिकायतें सुनने वाली एक समिति भी हो और लोग उसके कामकाज के बारे में जानते हों। शिकायत दर्ज कराने और सुलझाने की व्यवस्था जितनी सहज और कारगर होगी, बड़े लोगों की प्रतिष्ठा जाने का डर उतना ही कम होगा।


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