1932 में अंग्रेजों के गुलाम भारत में स्व. जेआरडी टाटा ने टाटा एयर लाइन स्थापित की थी और नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में भारतीयों को देशी एयरलाइन दी थी। जिसे 1946 में पब्लिक कम्पनी के तहत एयर इंडिया नाम दिया गया। परन्तु भारत के आजाद होने पर देश की तत्कालीन आर्थिक नीतियों के तहत इस एयर लाइन का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और इसके मालिकाना हक केन्द्र की सरकार ने ले लिये। परन्तु 1991 में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था शुरू होने पर केन्द्र की सरकारों ने 'ओपन स्काई' नीति शुरू की जिसके तहत घरेलू उड़ानों के लिए निजी क्षेत्र को अपनी एयर लाइनें स्थापित करने की छूट प्रदान की गई। इस नीति के लागू होने के बाद देश में निजी एयरलाइनों की बाढ़ आयी परन्तु वह जल्दी ही सुस्त पड़ गई और गिनी-चुनी एयर लाइनें ही लाभप्रदता की कसौटी पर खरी उतर सकीं। परन्तु बाद में सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय हवाई सेवाओं में भी निजी क्षेत्र को छूट दी जिसके तहत टाटा समूह ने विस्तारा एयरलाइन और एयर एशिया चालू कीं। अब एयर इंडिया का अधिग्रहण करने के बाद विदेश विमान सेवाओं में टाटा समूह की एयर लाइन देश की सबसे बड़ी एयर लाइन होगी जबकि घरेलू उड़ानों में इसका इंडिगो एयर लाइन के बाद इसका दूसरा नम्बर होगा।
सरकार के नियन्त्रण में चलते हुए एयर इंडिया को भारी घाटा हो रहा था। इसका असली कारण क्या था, यह तो उड्डयन विशेषज्ञ ही बेहतर तरीके से बता सकते हैं और जान सकते हैं कि सरकारी एयर लाइन होने की वजह से इसका कथित दुरुपयोग कैसे-कैसे होता था मगर हकीकत यह है एयर इंडिया पर 15 हजार एक सौ करोड़ रुपये का कर्जा था जिसे अब टाटा समूह पूरा करेगा और शेष धनराशि सरकारी खजाने में जमा करेगा क्योंकि कुल सौदा 18 हजार करोड़ रुपए का हुआ है। मोटे तौर पर इस सौदे से 27 सौ करोड़ रुपए ही सरकारी खजाने में जमा होगा शेष सभी कर्जा चुकाने में जायेगा।
एयर इंडिया को बेचने के लिए केन्द्र सरकार बहुत पहले से कोशिश कर रही थी। इसकी व्यावहारिक शुरूआत स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के जमाने में हुई थी जब टाटा समूह ने सिंगापुर एयर लाइन के साथ मिल कर एयर इंडिया के 40 प्रतिशत शेयर खरीदने चाहे थे। मगर यह सौदा परवान नहीं चढ़ सका था जिसके बाद टाटा ने विस्तारा व एयर एशिया शुरू की थीं। इसके बाद मनमोहन सरकार के दौरान भी एयर इंडिया को बेचने के प्रयास किये गये मगर वे कई कारणों से निष्फल रहे। मोदी सरकार ने निजीकरण की नीति को आगे बढ़ाते हुए जब एयर इंडिया को बेचने की अपनी मंशा जाहिर की तो पहले चरण में यह सफल नहीं हो सकी और इसका कोई ऐसा सशक्त खरीदार सामने नहीं आ सका जो सरकारी शर्तों को पूरा करता हो परन्तु विगत वर्ष जब पुनः प्रयास शुरू हुए तो टाटा समूह ने सबसे ऊंची बोली लगा कर इसे हस्तगत करने के अपने पक्के इरादे का इजहार किया। सरकार ने एयर इंडिया का आधार मूल्य 12906 करोड़ रुपए रखा था। टाटा समूह ने इससे 40 प्रतिशत अधिक की बोली लगाई। यह बोली सर्वाधिक थी। कुल सात बोली लगाने वाले में केवल दो ही सरकारी शर्तों पर खरे उतरे और इनमें से टाटा समूह सभी आधारों पर खरा उतरा।
अब सवाल यह है कि बुरी तरह कर्ज में दबी एयर इंडिया का उद्धार करने के लिए टाटा समूह को इस एयर लाइन की प्रबन्ध व्यवस्था से लेकर परिचालन तन्त्र को नये सिरे से सुधारना होगा। टाटा समूह को नागरिक उड्डयन का अच्छा अनुभव है और बड़े-बड़े उद्योगों को लाभप्रद तरीके से चलाने में इसका सामर्थ्य भी जग जाहिर है जिसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यह एयर इंडिया का कायाकल्प भी जल्दी ही कर लेगा। मगर एयर इंडिया जहां से चली थी वहीं (टाटा समूह) पहुंच गई है।