युद्ध के विरुद्ध
रूस और यूक्रेन में चल रहे युद्ध में दोनों तरफ भारी तबाही के बावजूद दुनिया के बड़े-बड़े देशों द्वारा इसे आगे बढ़ कर नहीं रोकना और मीडिया द्वारा नकारात्मक भूमिका निभाना शर्मिंदा करने वाली बात है।
Written by जनसत्ता: रूस और यूक्रेन में चल रहे युद्ध में दोनों तरफ भारी तबाही के बावजूद दुनिया के बड़े-बड़े देशों द्वारा इसे आगे बढ़ कर नहीं रोकना और मीडिया द्वारा नकारात्मक भूमिका निभाना शर्मिंदा करने वाली बात है। अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी देश पहले तो यूक्रेन की पीठ थपथपाते रहे, पर अब वे भी सीधे युद्ध में कूदने के बजाय यूक्रेन को अपने हथियार देकर उनका परीक्षण करने में लगे हुए हैं। इस युद्ध में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद तथा महासभा अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असमर्थ रही है।
अधिकतर टीवी चैनल और इन्हें देखने वाले तमाशबीन इसे किसी मनोरंजक फिल्म की तरह देखते हैं। दोनों तरफ होने वाली तबाही, एटीएम और पेट्रोल पंप के आगे लंबी-लंबी कतारें, ध्वस्त हुई इमारतें, युद्ध की विभीषिका, मारे जाने का भय, ताकतवर देश के आगे आत्मसमर्पण की शर्म तथा ग्लानि को नहीं समझते। इस युद्ध का भारत समेत विश्व के अनेक देशों पर जो प्रभाव पड़ेगा, उसे ध्यान में रखते हुए इसे और बढ़ाने के बजाय रोकने की कोशिश करनी चाहिए। भारत द्वारा रूस और यूक्रेन को हिंसा से बचने की सलाह देना तथा संयुक्त राष्ट्र में निष्पक्ष रहना समझदारी का काम है।
इसमें कोई शक नहीं कि जैसा रूस ने समझा था, यूक्रेन उतना कमजोर नहीं निकला। अगर इस युद्ध में रूस के द्वारा परमाणु अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग हुआ तो इससे न केवल तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो जाएगी, बल्कि विश्व भी तबाही की तरफ बढ़ जाएगा। संयुक्त राष्ट्र चार्टर में इस प्रकार का संशोधन करना चाहिए कि जिन पांच देशों को वीटो पावर मिली हुई है, वे इसका दुरुपयोग न कर सकें। इससे पहले अमेरिका भी सुरक्षा परिषद और महासभा के प्रस्तावों के खिलाफ इराक, सीरिया, अफगानिस्तान आदि देशों में अपनी सेना भेज कर भारी तबाही मचा चुका है। वही काम अब रूस यूक्रेन में कर रहा है
कोई बड़ी बात नहीं कि जब अमेरिका और नाटो देशों की निगाहें रूस और यूक्रेन के युद्ध में लगी हुई है तो इसका फायदा उठा कर चीन ताइवान के ऊपर हमला करके उसे चीन का एक भाग ही बना ले, क्योंकि अमेरिका और नाटो सेनाएं एक ही समय रूस तथा चीन दोनों का मुकाबला नहीं कर सकती। इसलिए भारत जैसे निष्पक्ष और शक्तिशाली देशों को मिल कर रूस और यूक्रेन में युद्ध समाप्त करवाना चाहिए और रूस द्वारा कब्जा किए गए इलाकों को खाली करवाना चाहिए। तभी विश्व में शांति स्थापित हो सकती है और जब सामान्य स्थिति हो जाए तब संयुक्त राष्ट्र का विशेष सम्मेलन बुला कर विश्व के किसी भी हिस्से में युद्ध की संभावना को रोकने के लिए कार्यप्रणाली तैयार करनी चाहिए।
रूस-यूक्रेन विवाद ने जब से जमीनी संघर्ष का रूप लिया है, उसके बाद से विश्व में (शांति की स्थापना के लिए बने) संयुक्त राष्ट्र की भूमिका का निष्पक्ष और आलोचनात्मक विश्लेषण किए जाने की आवश्यकता है। दरअसल, संयुक्त राष्ट्र की कार्यप्रणाली पर समय-समय पर अंगुलियां उठती रही हैं। इस विषय पर बहुत बार असंतुष्ट सदस्य देशों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं और संयुक्त राष्ट्र में बदलाव की आवश्यकता पर जोर दिया है।
इसके बावजूद न तो संघ में कोई बदलाव होता दिख रहा है और न ही उसकी पक्षपाती, सीमित और दबाव में काम करने की पद्धति में बदलाव होता दिख रहा है। हाल ही में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे का विषय हो, पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर होने वाले हिंसक हमले हों या चीन द्वारा पैदा की गई वैश्विक महामारी का सूत्रपात हो, संयुक्त राष्ट्र बेहद दब्बू किस्म की भूमिका में दिखाई पड़ा है।
तमाम प्रकार के मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाते देशों के प्रति इसका अघोषित भय अब स्पष्ट होने लगा है। आज जबकि भारत की वैश्विक स्थिति और ताकत रूस, चीन, अमेरिका जैसे देशों में स्पष्ट दिख रही है, संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्य न बनाना उसकी कमजोरी सिद्ध करता है। ऐसे में यह संगठन दुनिया के लिए कितना सार्थक बचा रह सकेगा, यह कहना मुश्किल नहीं है।