चिराग पासवान और मुकेश सहनी के बाद बिहार में किसकी बारी !

बिहार में पहले चिराग पासवान से बीजेपी ने दामन छुड़ाया और अब ‘सन आफ मल्लाह’ मुकेश सहनी की ‘नाव’ ही डूबो दी

Update: 2022-03-31 15:01 GMT
Faisal Anurag
बिहार में पहले चिराग पासवान से बीजेपी ने दामन छुड़ाया और अब 'सन आफ मल्लाह' मुकेश सहनी की 'नाव' ही डूबो दी. जीतनराम मांझी से भी बीजेपी के रिश्ते सहज नहीं हैं और नीतीश कुमार कभी कड़ा तेवर दिखाने के बाद तुरंत ऐसी भाव भंगिमा का प्रदर्शन करते हैं जिससे लगता है कि वे अपनी नियति समझ चुके हैं कि बिहार में अब वे बड़े भाई की भूमिका में नहीं हैं. बिहार की राजनीति में एनडीए के अंदर के इस घटनाक्रम ने स्पष्ट कर दिया है कि गठबंधन में छोटे दलों के सामने दो ही रास्ते हैं या तो वे बीजेपी के सामने पूरी तरह सरेंडर कर जाएं या फिर टूटने और राजनीतिक पतन के लिए तैयार रहें. एनडीए के कई पुराने घटक कब का साथ छोड़ कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसमें पंजाब का आकली दल और महाराष्ट्र की शिव सेना प्रमुख हैं.
शिव सेना ने वक्त रहते ही रास्ता बदल लिया और गैर भाजपा दलों एनसीपी और कांग्रेस से गठबंधन कर सत्ता हासिल कर लिया. लेकिन अकाली दल के लिए रास्ता इतना कठिन हो गया कि पंजाब के विधानसभा चुनाव में बादल परिवार को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और पंजाब की राजनीति में वह हाशिए पर चली गयी. बादल परविार का कोई भी सदस्य विधानसभा चुनाव नहीं जीत पाया.बीजेपी और उसकी सहयोगी छोटी पार्टियों के रिश्तों की कहानी के लिए 2014 के बाद के भाजपा के उभार और लोकसभा में बहुमत के संदर्भ को याद किए जाने की जरूरत है.
एनडीए के गठन के पीछे जिन नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. उसमें अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, प्रमोद महाजन, जार्ज फर्नांडीस,शरद पवार, नीतीश कुमार और चंदबाबू नायडू शामिल रहे. एनडीए के बुनियाद में जो विचार रखे गये थे उसकी राह की तीन बाधाओं से बीजेपी ने उन्हें अलग कर दिया था. इसमें राम मंदिर, कामन सिविल कोड और हिंदुत्व की आइडोलाजी शामिल हैं. लेकिन 2014 के बाद का पूरा परिदृश्य बदल चुका है. इन तीनों ही मुद्दों की केंद्रीय भूमिका है और पुराना नेतृत्व की जगह भाजपा के नए नेता उभर आए हैं.
बाजपेयी के जामने तक वे बड़े नेता जरूर थे, लेकिन एकमात्र नेता नहीं जो अपने दम पर किसी भी उम्मीदवार को जीत दिला दें. लेकिन नरेंद्र मोदी ने 2014 और बाद के तमाम चुनावों में साबित किया है कि वोटर उन्हें देख कर वोट देते हैं. छोटे दलों ने भी इस हकीकत को स्वीकर कर लिया है और अलग दल होने के बावजूद भाजपा के परोक्ष हिस्से बन चुके हैं.2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के साथ महागठबंधन बना कर नरेंद्र मोदी को हरा दिया. लेकिन नीतीश ने दो साल में ही भाजपा से हाथ मिलाकर दुबारा सरकार ली. नीतीश कुमार के बड़े भाई से छोटे बनने की कहानी यहीं से शुरू होती है.
कभी कभी जरूर नीतीश कुमार अपना तेवर दिखाते हैं लेकिन जल्द ही किसी न किसी बहाने वह संदेश दे देते हैं कि नरेंद्र मोदी ही उनके नेता हैं. चिराग पासवान हालांकि अब भी भाजपा के प्रति नरम ही दिखते हैं जबकि उनकी पार्टी को तोड़कर उनके अस्तित्व को नीतीश और भाजपा दोनों ने ही चुनौती दी है. पूर्व मंत्री राम विलास की लोक जनशक्ति पार्टी ने 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़ा था. राम विलास पासवान के बेटे और एलजेपी के अध्यक्ष चिराग पासवान भी लगातार पीएम मोदी को अपना 'राम' बताते रहे, लेकिन 2020 विधानसभा चुनाव में एलजेपी और जेडीयू में तकरार बढ़ी तो बीजेपी ने जेडीयू का साथ दिया और चिराग को एनडीए से बाहर का रास्ता दिखा दिया.
चिराग 2019 के विधानसभा चुनाव में अकेले लड़े और बुरी पराजय के शिकार हुए. चिराग पासवान की समस्या यह दिखती है कि स्पष्ट संकेत के बावजूद वे स्वतंत्र राजनीति करने या विपक्ष के दलों राष्ट्रीय जनता दल या कांग्रेस के साथ जाने से हिचकते हैं. वे इस तथ्य को जानते हैं कि बिहार की ध्रुवीकृत राजनीति में अकेले किसी भी छोटी पार्टी का सफर संभव नहीं रह गया है. मुकेश सहनी के वास्तविक ताकत से ज्यादा आत्मविश्वास मंहगा साबित हुआ है. उनके तीन विधायक भाजपा में शामिल हो चुके हैं. सहनी को नीतीश ने अपने मंत्रीमंडल से बर्खास्त कर दिया है. लेकिन सहनी का 'एकतरफा प्यार' ही है कि वे अब भी नीतीश कुमार से उम्मीद लगाए हुए हैं.
उत्तर प्रदेश के चुनाव में जिस तरह पिछड़ों और दलितों के विभिन्न तबकों ने साथ दिया, उसका असर भाजपा में दिखने लगा है. हालांकि न तो नीतीश कुमार और न ही भाजपा एक दूसरे का साथ छोडेंगे, लेकिन नीतीश की राजनैतिक हैसियत और दावेदारी एक छोटे क्षेत्रीय दल की तरह बन कर रह गयी है जो छोटा भाई बन कर संतुष्ट है. बिहार में तो चर्चा है कि जल्द ही नीतीश की भूमिका बदलने वाली है. अनुमान लगाया जा रहा है कि उन्हें उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार बना कर भाजपा जदयू को पूरी तरह समाहित कर लेगी. हालांकि हकीकत यह भी है कि नीतीश भाजपा की जरूरत हैं क्योंकि उनके कदकाठी का नेता भाजपा के पास नहीं है. लेकिन भाजपा जानती है कि नेता किस तरह बनाए जाते हैं.
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