आखिर सपा प्रमुख अखिलेश यादव क्यों नहीं जीत पाए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव?
सम्पादकीय
शांतनु गुप्ता। इस बार भी अखिलेश यादव का चुनावी अभियान असफल रहा। 'आ रहे हैं अखिलेश' का नारा पोस्टर और गानों तक ही सीमित रह गया। लिहाजा उनका उत्तर प्रदेश का फिर से मुख्यमंत्री बनने का सपना टूट गया। योगी आदित्यनाथ की मजबूत शासन देने वाले मुख्यमंत्री की छवि से वह पार नहीं पा सके। आखिर अखिलेश यादव का इतना बड़ा चुनावी अभियान उन्हें सत्ता में वापस लाने में क्यों विफल रहा? पिछले 18 महीनों में मैंने उत्तर प्रदेश के भीतरी इलाकों में व्यापक यात्रा की है। जमीन से आने वाली अधिकतर आवाज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के समर्थन में थी। लोग मकान, शौचालय, गैस, राशन और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण द्वारा सरकारी योजनाओं का पैसा सीधे बैैंक खाते में मिलने के कारण योगी सरकार के काम से खुश दिखे। बेहतर कानून व्यवस्था ने सबका मन मोह रखा था। जब यह सब काम हो रहा था, तब अखिलेश यादव राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं थे। वह न तो संसद में सक्रिय दिखे और न ही अपने संसदीय क्षेत्र में। लोकसभा में उनकी उपस्थिति 33 प्रतिशत है।
जब पूरा विपक्ष हाथरस कांड को राजनीतिक रूप से भुनाने की कोशिश कर रहा था, तब भी अखिलेश यादव सियासी पटल से गायब थे। कोरोना संकट के दौरान जब योगी आदित्यनाथ शहर-शहर, गांव-गांव का दौरा कर रहे थे, तब अखिलेश यादव प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से स्वदेशी कोविडरोधी टीके को 'भाजपा की वैक्सीन' बताकर उसके विरुद्ध एक प्रकार का प्रलाप रहे थे। यह बात और है कि उनके इस बयान के कुछ ही दिन बाद मुलायम सिंह टीका लगवाते दिखे।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से करीब तीन महीने पहले अखिलेश यादव सक्रिय हुए। संभव है तब तक उन्हें और उनकी टीम को यह अहसास हो गया होगा कि वे करोड़ों लाभार्थियों की मोदी-योगी के समर्थन में उठ रही आवाजों का मुकाबला नहीं कर पाएंगे। चुनाव के तीन माह पहले इसका मुकाबला करने और मुस्लिम-यादव समुदाय तथा अनिर्णीत मतदाताओं को एक लुभावना विजयी संकेत देने के लिए उन्होंने एक जोरदार मीडिया अभियान शुरू करने का फैसला किया। 'आ रहे हैं अखिलेश' के नारे के जरिये उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह बताने की कोशिश की कि सपा का शासन वापस आ रहा है। इससे समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं में अतिरिक्त उमंग और उत्साह भर गया। सपा की रैलियों में इस शोर-शराबे वाली भीड़ ने कई कथित राजनीतिक विश्लेषकों-पत्रकारों में यह भ्रम पैदा कर दिया कि 'योगी जा रहे हैं' और 'अखिलेश आ रहे हैं।' इस प्रकार अखिलेश यादव अपने ही प्रचार तंत्र का शिकार हो गए। शायद इस मीडिया विमर्श के आधार पर उन्होंने अपनी जीत पक्की समझ ली। उत्तर प्रदेश के किसान एमएसपी पर गेहूं-धान की अभूतपूर्व खरीद, समय पर गन्ना भुगतान और पीएम-किसान सम्मान निधि योजना के कारण योगी सरकार से संतुष्ट थे, लेकिन अखिलेश किसान आंदोलन, लखीमपुर खीरी कांड और जाटों की भाजपा के प्रति कथित नाराजगी को अपने लिए बेहतर मानते रहे। उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति में सुधार से लोग खुश थे, लेकिन अखिलेश उन्नाव कांड के इर्द-गिर्द खबरों में बने रहे।
कोरोना के संकट को दूर करने के लिए योगी सरकार द्वारा किए गए प्रयासों से जमीनी स्तर पर लोगों में संतोष था। यहां तक कि राष्ट्रीय और वैश्विक एजेंसियों ने भी कोविड प्रबंधन के लिए योगी सरकार की प्रशंसा की, लेकिन अखिलेश यादव 'उतराते शवों' के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानियों में ही अटके रहे। अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण की राह प्रशस्त होने पर दुनिया भर के हिंदुओं ने सांस्कृतिक जीत की खुशी मनाई, लेकिन अखिलेश यादव ने 'आप' के साथ मिलकर वहां भूमि घोटाले का एक फर्जी मामला गढ़ा। चुनाव के आरंभ में अखिलेश यादव ने योगी सरकार के तीन मंत्रियों को अपनी पार्टी में शामिल किया तो मीडिया का एक वर्ग इसे उनका एक निर्णायक 'मास्टर स्ट्रोक' बताने लगा। कहा गया कि इससे उनके गैर-यादव ओबीसी आधार का विस्तार होगा, लेकिन वास्तविकता में इनमें से दो दलबदलू स्वामी प्रसाद मौर्य और धर्म सिंह सैनी खुद चुनाव हार गए, समाजवादी पार्टी के लिए अन्य सीटों पर सकारात्मक प्रभाव डालने की तो बात ही छोडि़ए। लिहाजा उनका 400 सीटें जीतने का सपना चकनाचूर हो गया। अपने कार्यकर्ताओं के सामने अखिलेश यादव को 'ईवीएम में हेराफेरी' की अपनी पुरानी थ्योरी का सहारा लेना पड़ा।
वास्तव में कथित विश्लेषकों-चुनावी विशेषज्ञों ने अखिलेश यादव को जमीनी सच्चाई से दूर रखकर उनके साथ धोखा किया। अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में लगातार छह- 2014 में लोकसभा चुनाव, 2015 में शहरी निकाय चुनाव, 2017 में विधानसभा चुनाव, 2019 में लोकसभा चुनाव, 2021 में जिला पंचायत चुनाव और अब 2022 में विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। हालांकि इन सभी गलतियों के बावजूद समाजवादी पार्टी को 2022 के विधानसभा चुनाव में 32 प्रतिशत वोट मिला है, जो उसका अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। सपा के मत प्रतिशत में यह बढ़ोतरी अखिलेश यादव की मेहनत से नहीं, बल्कि बसपा के कमजोर होने के कारण अल्पसंख्यक वोटों की हुई एकतरफा लामबंदी के चलते हुई है। इस वोट शेयर का ऊपर जाना समाजवादी पार्टी के लिए तब तक नामुमकिन लगता है, जब तक कि अखिलेश यादव गैर-चुनावी समय में अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाना शुरू नहीं करते, लोगों के मुद्दों को उठाना शुरू नहीं कर देते और सदा सक्रिय रहने वाले पूर्णकालिक राजनेता नहीं बन जाते-अपने पिता मुलायम सिंह की तरह।
(स्तंभकार 'द मांक हू ट्रांसफार्म्ड उत्तर प्रदेश' पुस्तक के लेखक हैैं)